लौटते हुए
मेरे साथ
मैं नहीं था
छूट गया था वह
वही आँगन में पसरे हुए
तुम्हारे कपड़ो के साथ
अमरुद के पेड़ से
लटक गया
और हरसिंगार के छाये में
सो गयी थी मेरी
आत्मा
लौटते हुए
मेरे साथ था
हारे हुए का इतिहास
चीत्कार से भरा
युद्ध का मैदान था
लहुलुहान मेरे भीतर ,
छोड़ आया था जीत
तुम्हारे देहरी
लौटते हुए
ज्ञात हो रहा था
क्षितिज
आभासी है कितना
पृथ्वी और व्योम का
सम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है
लौटते हुए
पूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.
जब लौट रहे थे
पक्षी अपने घोंसले में
सूरज भी लौट रहा था
समंदर की गोद में
बच्चे माँ की आंचल में
बस अकेला था तो मैं
कुछ एकाकी पदचिन्हों के साथ.
लौटते हुए
जवाब देंहटाएंपूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.
मै और मेरे पदचिन्ह
तुम्हारे पदचिन्हो के
समानान्तर चल दिये
ना मिले मगर
कभी तो कही ना कही
रेखाये मिलेंगी ही
किसी ना किसी
मोहब्बत के क्षितिज़ पर
अब इसके आगे क्या कहूँ?
लौटते हुए
जवाब देंहटाएंज्ञात हो रहा था
क्षितिज
आभासी है कितना
पृथ्वी और व्योम का
सम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है
बहुत गहन अहसास.दिल को छू लेनेवाली भावपूर्ण बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
पृथ्वी और व्योम का
जवाब देंहटाएंसम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है
गहरे एहसास अभिव्यक्त हुए है!
प्रभावी रचना!
samanantar rekhayen kaise mil payengi vandana ji:)
जवाब देंहटाएंSir aap to har baar ek dum se chup kara dete ho, sabdo ki kmi kyon ho jati hai mujhe:)
अरुण जी ,बहुत ही गहरे एहसास के साथ भावपूर्ण कविता.दिल को छू लेनेवाली सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएं.
फर्स्ट टेक ऑफ ओवर सुनामी : एक सच्चे हीरो की कहानी
गहन भावों के साथ बेहतरीन शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत कविता.. गहरे शब्द और गहरी सोच..दोनों..
जवाब देंहटाएंआभार
लौटते हुए
जवाब देंहटाएंमेरे साथ
मैं नहीं था
छूट गया था वह
वही आँगन में पसरे हुए
तुम्हारे कपड़ो के साथ
अमरुद के पेड़ से
लटक गया
और हरसिंगार के छाये में
सो गयी थी मेरी
आत्मा
nihshabd aatma ka vishleshan kar rahi hun
कुछ यात्राओं में खाली हाथ लौटना पड़ता है।
जवाब देंहटाएं... saargarbhit rachanaa ... prasanshaneey !!!
जवाब देंहटाएंअरुण जी! यह वेदना एक अकेले की नहीं, महानगर में प्रवासी का जीवन व्यतीत कर रहे हर उस व्यक्ति की है जो कोट,पैंट और टाई में जकड़ा हुआ, आंग्ल भाषा में बतियाता ही नहीं, मुस्कुराता भी है. किंतु रात के एकाकीपन में, दर्पण के सम्मुख स्वयम् को निर्वस्त्र देखता है तो,उस मिथ्यावरण रहित उस व्यक्ति के मुख पर आपकी यह कविता अवतरित होती है...
जवाब देंहटाएंसाधुवाद!
खूबसूरत कविता, साधुवाद.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुपर सुपर सुपर ! कमाल के रचना ! किस पंक्ति को याद रखूं और किसे भूल जाऊं.. कशमकश सी लगी है. तारीफ के लिए शब्द अपनी क्षमता तक आ पहुंचे हैं..!! ये वही अरुण जी हैं जिनकी छवि हमारे मष्तिस्क में एक अमिट छाप छोड़ चुकी है..! बधाई हो इतनी उम्दा रचना के लिए! दिल से आभार !!
जवाब देंहटाएंलौटते हुए
जवाब देंहटाएंमेरे साथ था
हारे हुए का इतिहास
चीत्कार से भरा
युद्ध का मैदान था
लहुलुहान मेरे भीतर ,
छोड़ आया था जीत
तुम्हारे देहरी
गहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
इस वापसी के बारे में क्या कहें .....सब कुछ तो कह दिया ...बस समझ बन जाये ...शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह कविता।
जवाब देंहटाएंलौटते हुए
जवाब देंहटाएंपूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.
.........
बहुत सुंदर !
एक भटकी हुई कविता।
जवाब देंहटाएं*
यह स्पष्ट ही नहीं होता है कि कवि कहां से लौट रहा है।..... और जो स्पष्ट होता है वह भयावह है। कवि से ऐसी अपेक्षा तो नहीं है।
*
इस कविता में शब्दों का चयन अच्छा है और हममें से ज्यादातर पाठक उसी में खो गए हैं। लेकिन कविता है क्या और किसके लिए कही गई है। वह कौन है।
नहीं निरपेक्ष हम जात से पात से भात से फिर क्यों निरपेक्ष हम धर्मं से..अरुण चन्द्र रॉय
जवाब देंहटाएंलौटते हुए
जवाब देंहटाएंपूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.
एक की जिद दूसरे की हार बन ही जाती है...और ऐसे में एकाकीपन और गहरा जाता है...
कुछ उदास करती हुई...सुन्दर रचना
मन भारी कर दिया आपकी रचना ने...पर यही तो इसकी सार्थकता है...
जवाब देंहटाएंभावुक हृदयस्पर्शी रचना...
अरुण जी,
जवाब देंहटाएंआपकी कविता के भाव मेरी अभिव्यक्ति के शब्दों में नहीं समां पा रहे हैं !
लौटते हुए
ज्ञात हो रहा था
क्षितिज
आभासी है कितना
पृथ्वी और व्योम का
सम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है
वाह क्या बात है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत ही गहरा कह गए महाराज ,,
जवाब देंहटाएंपिछली टिप्पणी में लिंक गलत लग गया था सो उसे मिटा कर दोबारा टीप रहा हूं अरूण भाई
मेरा नया ठिकाना
क्यों टाईम वेस्ट कर रहें हैं आप, साहब ।
जवाब देंहटाएंbahut prabhawi !
जवाब देंहटाएंman ko bandh lene aur hriday ko jhakjhor dene me saksham rachna..
जवाब देंहटाएंgahre ehsason ki marmik abhvyakti.
prbhavit karta hai lautna.. akele.. kuchh yado ke saath.. oopar kisi sajjan ki tippani se main asahmat hoon ki kahan se laut rahe hain.. are.. kavita ka adhurapan hee to us maun ko sampreshneey banata hai..
जवाब देंहटाएं