गुरुवार, 23 सितंबर 2010

अयोध्या

राम
तुम्हारे पहले नन्हें कदम
जिस धरती पर पड़े थे
आज
बूटों तले रौंदी जा रही है
फ्लैग मार्च हो रहे हैं
और
खामोश है आस्था
मौन हो तुम भी

तुम नहीं आओगे
आना भी नहीं चाहिए तुम्हें
इस विवाद के बीच
कि
तुम पैदा हुए थे
इसी अयोध्या में
लेकिन
ए़क बात बताना चाहता हूँ कि
नहीं समझा गया जब तुम्हें
कैसे सुना जाएगा कि
क्या चाहता है
अयोध्या

नहीं समझा
किसी ने कि
आस्था से परे भी है
अयोध्या का जीवन
अयोध्या की पहचान
अयोध्या का अस्तित्व

अयोध्या में
बच्चे हंसते भी हैं
स्कूल भी जाते हैं
लडकियां खेलती हैं
औरतें बतियाती हैं
नहीं जाना किसी ने
बस जाना तो कि
है यह राम की अयोध्या
विवादित सी

पिता भी होते हैं
पिता के सपने भी होते हैं
उन्हें भी करने हैं
बेटियों के हाथ पीले
अयोध्या में
नहीं जानने की कोशिश की
किसी ने

आसमान है
होता है आसमान में चाँद
गायें रंभाती हैं
बछड़ों के लिए
संध्या बेला
परिंदे लौट आते हैं
अपने घोंसले में
नहीं कहा किसी ने
कभी भी

राम
चले जाओ
अयोध्या से
फैसले से पूर्व

ताकि
चौदह कोशी अयोध्या जिए
आम जीवन
बूटों तले नहीं, खुले आसमान में .

30 टिप्‍पणियां:

  1. अरुण ,इससे सुन्दर भावाभिव्यक्ति क्या हो सकती है .सच कहूँ तुम्हारी इस कविता की तारीफ के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं .

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  2. अरुण जी इस समसामयिक रचना के लिए आपकी जितनी प्रशंशा की जाए कम है...सच कहा...अयोध्या में राम के अलावा भी बहुत कुछ है जिसके बारे में किसी को कोई चिंता नहीं...किसी को कोई सरोकार नहीं...इतने लोगों का जीवन राम और मस्जिद की मूर्खता पूर्ण लड़ाई में बर्बाद हो रहा है...

    नीरज

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  3. राम
    चले जाओ
    अयोध्या से
    फैसले से पूर्व
    ताकि
    चौदह कोशी अयोध्या जिए
    आम जीवन
    बूटों तले नहीं, खुले आसमान में.
    --

    बहुत सुन्दर!
    काश् राम का मर्म हम समझ पाते!

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  4. ज़ज्बे को सलाम...लाजवाब लेखन... प्रणाम स्वीकार करे..

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  5. Dear arun ji
    Nirmal Gupt ji Neeraj Goswami ji Dr shastri ji ne sab kuch keh diya

    ab main kya kahoo........
    behtreen rachnaa...

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  6. आपका सामयिक लेखन अद्भुत है. विवाद और तनाव को बखूबी उकेरा है...

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  7. umda rachna, I share the same feelings on this issue as common man's say and input has not been taken and this issue became over hipped political drama...

    I would pray for tomorrow, our mother land is already wounded and I want to see peaceful tomorrow no blood from any of the community as past is like a fearful dream which should not be repeated at any cost...

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  8. बस सिर्फ एक चुप... और चिंतन और कुछ नहीं

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  9. जानदार लेखन...आपकी लेखनी को नमन...जिस दिशा में चल जाये, चकित करती है. बधाई.

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  10. राम ने समाज को खुलापन दिया, उसी के लिये उन्हें न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा।

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  11. राजेश उत्साही जी ने ई मेल से कहा :
    "प्रिय अरुण भाई,
    यह बहुत ही संवदेनशील विषय है।
    आपने अच्‍छी कविता लिखने की कोशिश की है। पर फिर कहूंगा कि जल्‍दबाजी में थोड़ी कमजोर रह गई है। उदाहरण के लिए बेटियां सिर्फ पिता की ही नहीं होती,मां की भी होती हैं। औरतें केवल बतियाती ही नहीं बहुत कुछ और भी करती हैं।
    कुछ और भी बातें हैं। असल में कविता आपके सोच से प्रभावित होती है। हमें पहले उसे साफ करने की जरूरत होती है।
    शुभकामनाएं
    राजेश उत्‍साही "

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  12. समसामयिक विषय पर बहुत ही उम्दा रचना है | दिल से निकली हुई ये आवाज़ राम के आने के प्रतीक में कोइ चमत्कार जरुर करेगी | भारतीय हिन्दू और मुसलमान को व्यक्तिगत रूप से पूछे तो कहते है की मंदिर बने या मस्जिद, हमें शांति-अमन से रहना है | अंग्रेजों के बाद हमारे राजनेता मतों की भीख मंगाते हैं और हमें आपस में लड़ाते हैं | आम आदमी को राम हो या रहीम ! कोइ फर्क नहीं पड़ता...
    राम
    चले जाओ
    अयोध्या से
    फैसले से पूर्व
    ताकि
    चौदह कोशी अयोध्या जिए
    आम जीवन
    बूटों तले नहीं, खुले आसमान में .

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  13. अरुण जी,
    एक बेहद संवेदनशील और सम्सामयिक रचना लिखी है आपने।
    राम को जिहोने नही जाना तो उनके आदर्शों को कैसे जान सकते हैं………………राम ने तो हमेशा ही रामराज्य चाहा मगर कहाँ रहा? क्या करेंगे राम वहाँ आकर्……………वैसे बसते तो अब भी वहीं हैं वहां के कण कण मे बस उसे लोग महसूस नही कर पाते…………फिर चाहे बच्चे हो, औरतें या माता पिता……………आम इंसान मे बसते हैं मगर ये जानने की किसे फ़ुर्सत है आखिर अपनी कुर्सी कैसे पक्की हो……………सब राजनिति है और आम जनता राजनिति कि बिसात पर बिछाई गयी मोहरे हैं जैसे चाहे खेला जा सकता है।

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  14. कविता मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास, आस्था और अनास्था के छद्म द्वन्द, सामजिक सद्भाव और सहिष्णुता का अभाव, साम्प्रदायिकता के अआगे घुटने टेकती आध्यात्मिक संवेदना पर करुण व्यंग्य है. कवि व्यथित है, जहां कभी नारायण ने जन्म लिया था, वहाँ आज नरत्व भी दाव पर है. कवि का शिल्प श्लिष्ट है किन्तु निर्बंध छंदों में होते हुए भी इस बार वह कसावट अनुभूत नहीं हुई, जो अरुण जी के शिल्प की मौलिक विशेषता होती है. कवि को बेहतरी की कोई उम्मीद नहीं नजर आ रही है. वह निराश है......... कविता क्षोभ के स्वर के साथ ही समाप्त हो जाती है और छोड़ जाती है वेदना की सघन अनुभूति. उत्प्रेरक रचना हेतु धन्यवाद !

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  15. राम
    चले जाओ
    अयोध्या से
    फैसले से पूर्व
    ताकि
    चौदह कोशी अयोध्या जिए
    आम जीवन
    बूटों तले नहीं, खुले आसमान में .
    बहुत ही सामयिक विषय पर बहुत ही सटीक एवं शालीन प्रहार.सामाजिक सरोकारों के समर्पित रचना के लिए धन्यवाद.

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  16. कविता भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है। फैसले से पूर्व जो स्थिति होती है वह है संशय की। संशय शब्‍द अलग से ध्‍यान चाहता है। दर्शनशास्‍त्र की शबदावली में इसका अपना विशिष्‍ट महत्‍व है। संशय एक ऐसी बौद्धिक अवस्‍था है, जहां एक दूसरे का विरोध करने वाली और परस्पर भयाक्रांत होने वाली दो दार्शनिक स्थितियां मुकाबले में खड़ी होती हैं। पक्ष और विपक्ष या थीसिस और एंटि थीसिस के रूप में पहचानी जाने वाली इस दो दार्शनिक स्थितियों के अंतर्विरोध से संशय सिर उठाते हैं और दर्शन की सरणियों से निकल कर समकालिक समाज व राजनीति और उसके जरिए मानव जीवन पर प्रत्‍यक्ष अप्रत्‍यक्ष प्रभाव डालते हैं।

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  17. अयोध्या में
    बच्चे हंसते भी हैं
    स्कूल भी जाते हैं
    लडकियां खेलती हैं
    औरतें बतियाती हैं
    नहीं जाना किसी ने
    बस जाना तो कि
    है यह राम की अयोध्या
    विवादित सी
    kaun samjhe is masumiyat kee dahshat .... bahut badhiyaa

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  18. arun jee
    namaskar!
    ek samvedanshil vishay hai aap ki kavita ka .lagata hai ki ayodhyaya ka dard laga hai aap ki kavita me .
    sunder
    saadar

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  19. एक बेहद संवेदनशील और सम्सामयिक रचना लिखी है| धन्यवाद|

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  20. इस सुन्दर रचना के लिए मेरे पास शब्द तो हैं, लेकिन वे फीके पड़ जाएंगे।

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  21. .

    आपके और जन-सामान्य के मन का दर्द , इस सुन्दर कविता में बखूबी उतरा है। प्रेम और शान्ति की अपील करती सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार।

    इसी विषय पर एक लेख ...ठुमक चलत रामचंद्र , बाजत पैजनिया --रामकोट-अयोध्या -- और मेरा बचपन !....पर एक नज़र अवश्य डालें।

    http://zealzen.blogspot.com/2010/09/blog-post_19.html

    आभार ।

    .

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  22. arun ji,
    bahut hin samvednapurn kavita hai jo na sirf ayodhyawaasiyon keliye balki sabhi hindustaaniyon ke mann ki aawaz hai. raam ko ishwar hain to samast ayodhya unka janmsthan hua, fir koi ek khas jagah ko hin kyon mana jaaye aur laakhon ka khoon bahaya jaaye. jaane kyon nahin samajhte sabhi. koi raam ya allah kyon nahin utar kar aata vivaad suljhaane? ye humein hin samajhna hoga aur sirf insaan ban kar sochna hoga. koi bhi ishwar nahin chahta ki ek bhi khoon bahe.
    bahut sundar aur saarthak lekhan. shubhkaamnaayen.

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  23. jis ram ne apane bhai ke liye raj pat chhod diya,usi ram ke bahane ladte hue aam longo ke bare me bhool gaye jinhe samanya jeevan jeene ka poora haq hai,aapki kavita ke bahane aapne jhakjhor diya hai ,,samvedna poorn prastuti....

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  24. हमेशा की तरह प्रभावशाली रचना - वक्त की पुकार

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  25. वाह जनाब.... बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्त्ति

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