शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
हाशिये पर
हुआ है विभाजन
समय, काल और
घटनाओं के हिसाब से
जैसे जैसे
लिखा गया इतिहास
वर्तमान बदलता गया
भूत में
इतिहास में
समय के हिसाब से
यह समय
जो कल बन जाने वाला है
इतिहास
हाशिये पर
रखने का समय है
हाशिया
जो अलग करता है
मुख्यधारा और सहयोगी धारा को
वहां खड़े कर दिए गए हैं
लोग
वे लोग
जिन्होंने माँगा
अपने हाथों के लिए काम
भूख मिटाने के लिए
मांगी रोटी
चाहा शांति और सुकून
जिन्होंने
अपनी नज़रों को
बाज़ार की चमक से
खुद को कर लिया था अलग
जिन्होंने
अपनी जुबां को
किया था मजबूत और
उठा दी थी
व्यवस्था और सिस्टम के विरूद्ध
बुलंद आवाज
सब मिल जायेंगे
हाशिये पर
कुछ लोगो ने
बना ली है
अपने और अपनों के बीच
दूरी
मांगने लगे हैं
पर्सनल स्पेस
उन्होंने
रिश्तो को पहुंचा दिया है
हाशिये पर
और
जब लिखा जाएगा
हम और हमारे समय का
इतिहास
कहीं जिक्र नहीं होगा
हाशिये पर पहुंचे लोगों को
जिन्होंने बनाया है
वर्तमान
ए़क खूबसूरत बर्तमान
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
हारा है पहाड़ का अहम
देखा है कभी
पर्वत को
कितना तनहा होता है
नदी के उदगम के बाद ।
देखा है कभी
नदी को
कितना उत्सव होता है
उसके तट पर
उसके रास्ते में
उसके बहाव में
सागर से मिलने की आस में ।
देखा है कभी
हिमालय को
उसका अहम
पिघलने नहीं देता उसे
नहीं बनने देता नदी
जबकि
नदी भुला देती है
स्वयं को
चल देती है
ए़क लक्ष्य को लेकर
मन में उत्साह का प्रवाह लिए
सागर में
समाहित हो जाने की चाह में ।
देखा है कभी
सागर को
बाहें पसार
इन्तजार कर रहा होता है
नदी का
उसके उर में
होता है लहरों का अम्बार
और अकुलाहट होती है
नदी से मिलने की
नदी
जहाँ जाती है
सभ्यता विकसित होती है
उत्सव होता है
झंकृत होते हैं लोकगीत
पहाड़ का अकेलापन
पत्थरों के भीतर के पत्थर से
डर जाती है नदी
पहाड़ की ऊंचाई भी
नहीं भाती नदी को
सागर के उर में समा
ए़क हो जाना चाहती है
नदी
सदा ही
हारा है पहाड़ का अहम
और जीती है
नदी ।
सोमवार, 26 जुलाई 2010
कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़
बहुत याद आ रही है
कील पर टंगी
बाबूजी की कमीज़
शर्ट की जेब
होती थी भारी
सारा भार सहती थी
कील अकेले
होती थी
राशन की सूची
जिसे बाबूजी
हफ्तों टाल मटोल करते रहते थे
माँ के चीखने चिल्लाने के बाद भी
तरह तरह के बहाने बनाया करते थे बाबूजी
फिर इधर उधर से पैसों का जुगाड़ होने के बाद
आता था राशन
कील गवाह थी
उन सारे बहानो का
बहानो का भार जो बाबूजी के दिल पर पड़ता था
उसकी भी गवाह थी
कील
बाबूजी के जेब में
होती थी
दादा जी की चिट्ठी
चिट्ठी में दुआओं के साथ
उनकी जरूरतों का लेखा जोखा
जिन्हें कभी पूरा कर पाते थे बाबूजी
कभी नहीं भी
कील सब जानती थी
कील
उस दिन बहुत
खुश थी
जब बाबूजी की जेब में था
मेरे परीक्षा-परिणाम की कतरन
जिसे सबके सोने के बाद
गर्व से दिखाया था उन्होंने
माँ को
नींद से जगा कर
कील उस दिन भी
खुश थी
जिस दिन बाबूजी ने
बांची थी मेरी पहली कविता
माँ को
फिर से नींद से जगा कर
बाबूजी की जेब में
जब होती थी
डॉक्टर की पर्ची
जांच की रिपोर्ट
उदास हो जाती थी
कील
माँ से पहले
ठुकने के बाद
सबसे ज्यादा खुश थी
कील
जब बाबूजी लाये थे
शायद पहली बार
माँ के लिए बिछुवे
अपनी आखिरी तनख्वाह से
आज
बाबूजी नहीं हैं
उनकी कमीज़ भी नहीं है
लेकिन कील है
अब भी
माँ के दिल में
चुभी हुई
हमारे दिल में भी ।
शनिवार, 24 जुलाई 2010
नेपथ्य से
रंगमंच पर हो रहा है
लिखी गयी है
इसकी स्क्रिप्ट
कहीं और
किसी और उद्देश्य से
ये पात्र
जो संवाद कर रहे हैं
सब झूठे हैं
सब बनावटी हैं
सब मुखौटे हैं
होठ इनके जरुर हैं
लेकिन स्वर इनका नहीं
दया के पात्र हैं ये
यह जो उत्साह दिख रहा है
सब खुशफहमी है
भीतर के दवाब को
कम करने की कोशिश है यह
जो जितना उत्साहित दिखता है
उतना सफल पात्र है वह
इस बीच
कुछ ऐसे भी पात्र हैं
जिन्होंने मना कर दिया था
लगाने को मुखौटा
ईमानदार शब्दों का साथ नहीं छोड़ा
और हाशिये पर पहुंचा दिए गए हैं
नेपथ्य से
नियंत्रित होता है
यह रंगमंच
किन्तु
पटाक्षेप होता है
अंत में
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
तुम्हारा आँचल
आँगन है मन का
जिसके कोने में
अमरुद के पेड़ पर
गौरैया ने जने हैं
कुछ अंडे
ध्यान रखना
टूटे नहीं वो !
तुम्हारा आँचल
कुआं है मन का
जिसके पनघट पर
ए़क सांवरिया भरती है
अपना यौवन घट
और इन्तजार करता है उसका
कोई चुपके से
शोर मत मचाना
वरना टूट जायेगी चुप्पी
और उसकी तपस्या
तुम्हारा आँचल
है आसमान
विशाल विराट विस्तृत
जिसमें मैं परिंदा
भरता हूँ अपने डग
खुद से लेते होड़
थक जाने तक
तुम्हारा आँचल
है वृक्ष की छाया
बनाये रखना
अपने आँचल की छाँव
मेरे सर पर
जैसे रखती है माँ
समय की कसौटी
समय की कसौटी
जब लेती है
परीक्षा
कहाँ खड़ा हो पाया कोई
इतिहास में
हारे हैं
सिपाही अपने ही वार से
और
कई युद्ध नहीं हुए हैं
मैदान में
समय के चक्र में
अनायास और अचानक ही
हुए हैं घायल
प्रारब्ध और नियति
समय से कहाँ
होड़ ले पाया कोई
इतिहास में
लेकिन
समय का अपना गणित है
अपनी व्याख्या है
आमतौर पर
कहते हैं उसे
समझौता
और लोगों को स्वीकार्य हैं
समझौते
समय के वितान पर
ए़क याचक हूँ मैं
तुम्हारे कुछ पलों का
जिन्हें बंद कर लेना चाहता हूँ
अपनी आँखों में
अपने ह्रदय में
और
अमिट कर देना चाहता हूँ
तुम्हे
हर समय से परे
प्रारब्ध और नियति की पहुँच से
बहुत बहुत दूर
नए समय में
बुधवार, 21 जुलाई 2010
तुम्हारा होने का अर्थ
और सन्दर्भ से परे
तुम्हारे होने का
है अर्थ
तुम
केवल तुम नहीं हो
तुम्हारे साथ है
मेरा अतीत
मेरा वर्तमान
और भविष्य की नीव
तुम पर टिकी है
इस लिए भी
तुम्हारे होने का
अलग अर्थ है
आसमान
आमतौर पर नीला होता है
लेकिन
तुम्हारे साथ होने पर
लगता है यह
अधिक नीला
अधिक प्रिय
इस अधिक का भी
होता है
अलग अर्थ
जब भी
बैठा हूँ तुम्हारे साथ
आस पास
गिलहरिया दौडती हैं
बच्चो सी किलकारी करते
गौरैया भी चहकती हैं
तुम्हारे साथ रहने तक
इन किलकारियों और
इनके चहकने का भी
होता है
अलग अर्थ
युद्ध से हारे हुए
सिपाही हैं
हम
लेकिन
हार को बना देती हो
तुम
मेरे नए संघर्ष का
आधार
मैं स्वयं ही
चुनौती देता हूँ
अपनी कमजोरियों को
और
हरा हुआ युद्ध भी
बन जाता है
मील का पत्थर
युद्ध के सन्दर्भ से परे
इस मील के पत्थर का
है अलग अर्थ
यह समय
बहुमंजिला समय है
परत दर परत
बटा हुआ मैं
बिखरा हुआ मैं
मेरा हर बिखराव को
समेटे तुम
कर रही हो ए़क
तुम्हारे
ए़क करने का है
ए़क अलग अर्थ
तुम्हारे होने का
है अर्थ
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
अपराधबोध
चुन कर
लाया था
ओस के कुछ मोती
पहनाने को
तुम्हें हार
लेकिन
धूप में सूख गए
२
चाहता था
देना तुम्हे
कुछ सितारे और चाँद का
उपहार
लेकिन
हो गयी अमावस
३
तुम्हारी राह में
बिछा दिए थे
फूल ही फूल
आ गए
साथ कांटे भी
छलनी हुआ
मैं भी
रविवार, 18 जुलाई 2010
छत
छत से आदमी और
उसके हैसियत का
चलता है पता
कई छतों पर
पडी होती हैं
टूटी कुर्सियां
मेज और
आलमारी किताबों वाली
इस से समझिये कि
आधुनिक है वो घर
किताबों के लिए
कोई स्थान नहीं वहां
कई छतों पर
मिल जायेगे आपको
पुराने टायर
साईकिल, स्कूटर और कार के
वह बड़ी हैसियत वाला घर है
वहां हैं मौजूद
जीवन के सभी आधुनिक साधन
कई छतों पर
देखा है मैंने स्वयं भी
छोटे छोटे बच्चों के साइकिल
समझ गया कि
बच्चे हो रहे हैं जवा
इस घर में
विस्थापित होने वाले हैं
मूल्य जल्दी ही
इन सब से परे
कुछ छतों पर आपको मिलेंगे
गमले
मौसमी और बारहमासी
फूलों और पत्तों से भरे
और ये बताता है कि
खूबसूरत होते हैं ये घर
और इनमे रहें वाले
इसके उलट
कुछ छतों पर
पा जायेंगे आप
गमलो में तरह तरह के कैक्टस
देशी विदेशी कैक्टस
संवेदना शुन्य होने का
देते हैं सबूत
कुछ छतों पर
मिलेंगे आपको
हजारों छेद वाली
फटी बनियान
किसी मेहनत कश की ,
बहुत प्रेरणा देते हैं
ये छत
भाई साहब
और इन सबके बीच
कुछ छत ऐसे भी हैं
जिनपर सजे होते हैं
चाँद, सितारे
ताने हुए आसमान के वितान पर
बिना किसी दीवार या खम्भे के सहारे
सच कहता हूँ
ऐसे छतों के नीचे
नींद बहुत अच्छी आती है
शनिवार, 17 जुलाई 2010
तुलसी
तुलसी
क्योंकि
आँगन में
नहीं थी जगह
उसके लिए
दिलों के बीच की दीवार
खड़ी हो रही थी
आँगन में
और
जिसके हिस्से में
पड़ी थी
तुलसी
वहां
लगाया जाना था
केक्टस
करोटन
और कई और
रंग बिरंगे पौधे
तुलसी
बाबूजी के
जाने के साथ ही
हो गई थी
ए़क चीज
क्योंकि
किसी और को
नहीं पसंद था
उसका काढ़ा
या
उसकी पत्तियों वाली
चाय
तुलसी
हो रही है विस्थापित
माँ के साथ ही
तुलसी
उदास है
क्योंकि
उदास है
माँ .
तुम्हारे लिए
अभी कुछ देर और है
मैं लगा लेता हूँ
एक वृक्ष
तुम्हारे लिए
अभी नमी है
हवाओं में
गा लेता हूँ
एक प्रेम गीत
तुम्हारे लिए
अभी खेत में
पानी है घुटने भर
रोप लेता हूँ
धान के कुछ पौधे
तुम्हारे लिए
अभी चाँद
निकलने वाला है
मैं जला लेता हूँ
एक दीया
अँधेरे से लड़ने के लिए
तुम्हारे लिए
जगमग
कर रहा है आसमान
सितारों से भरा
मैं तोड़ लाता हूँ कुछ
तुम्हारे लिए
अभी अभी
खिला है एक फूल
हमारे गमले में
नहीं तोडूंगा उन्हें
मैं कभी
तुम्हारे लिए .
शुक्रवार, 16 जुलाई 2010
अन्नपूर्णा हो तुम
रसोई में होती हो
अन्नपूर्णा होती हो
समा लेती हो सारी कमियाँ
समेट लेती हो सब कमी बेशी
बस पकाती हो
प्यार
संतोष
भाव
और
प्रेम
साथ बैठ कर खाना
साथ बैठ कर खिलाना
क्या किसी आशीर्वाद से कम है
२
जब तुम
बुहार रही होती हो
घर आँगन
दूर कर रही होती हो
सारे अपशकुन
समस्त लोभ
सभी विकार
और
शुद्ध कर रही होती हो
सबका मन
दूषित हो रही इस दुनिया में
अप संस्कृतियों के बिना रहने के लिए प्रेरित करना
किसी आशीर्वाद से कम है क्या
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
यात्रा
सब करते हैं
शब्द भी
तुम तक
जो शब्द पहुँचते हैं
उनकी यात्रा
रूमानी होती है
उन शब्दों के एहसास
मधुर होते हैं
जब शब्द
आपके चेहरे पर
ख़ुशी की लकीरें खींचते हैं
वे हजारों मील की यात्रा कर लेते हैं
हया की लालिमा से
जब नहा जाते हो तुम
मेरे शब्दों को पढ़ कर
ये शब्द कई समंदर पार कर जाते हैं
शब्दों के लिए
चाँद का छूना
बहुत मुश्किल नहीं है
तुम्हारे सपनो के साथ
वे अक्सर ही यात्रा करते हैं
शब्द और तुम
कर आओ ए़क यात्रा
मेरे ह्रदय की झील में
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
पानी
कहा था
पानी ही पानी
है चारो ओर
लेकिन पीने को
बूँद भर नहीं
कितना सही कहा था
उसने
सदियों पूर्व
पानी
आज भी तुम उतने ही उपयोगी हो
जितने वर्षो पूर्व
समय के चक्की पर
बदल गए तमाम रिश्ते
नहीं बदला तो बस
पानी का रिश्ता
पानी
जितने जरुरी हो तुम
उतने सहज भी हो
किसी भी आकार में
किसी भी रंग में
किसी भी रूप में
स्वयं को परवर्तित कर लेते हो
जानते हुए भी हम
कहाँ बन पाए
पानी
सहज
पानी
तुम्हारा प्रवाह
जितना प्यारा लगता है
बहती नदी के तट पर बैठ कर
उतना ही
भयावह और
प्रयालानकारी होते हो तुम
जब भूल जाते हो
सीमाओं को
हमे सदा ही तोड़ी हैं अपनी सीमायें
बिना सीखे कुछ तुमसे
तुम क्रोधित होकर
लाल नहीं होते
बल्कि शांत हो जाते हो
अपने भीतर सारी उर्जा समेत लेते हो
करने को उल्टा प्रहार
पानी
यह कला
तुमसे सीखने वाली है
पानी
मर्यादा क्या होती है
तुमने ही सिखाया है
इस सभ्यता को
स्थान और भाव से
बदल जाते हैं
रिश्ते
तुमने ही तो सिखाया है
वरना
जब ऊंचाई से गिरते हुए
तुम उर्जा के श्रोत ना हो जाते
तुमने ही बताया है
संभावना नहीं छोडो
गिरते हुए भी
क्योंकि रास्ते बन ही आते हैं
समय के साथ
पानी
बने रहो तुम
सबकी आँखो में
जब तक हो तुम
आँखों में
मौजूद है
हम-तुम
हम-सब
पानी
तुम उनकी आँखों में भी
सजे रहो
ताकि सजा रहू मैं
सदा सदा
तुम्हारी तरह
सोमवार, 12 जुलाई 2010
संस्कृति और प्रेम
ए़क दिन में नहीं बनती
ना ही ए़क दिन में
होता है प्यार
संस्कृति के
निर्माण के लिए चाहिए
सभ्यता का विकास
किसी नदी के तट पर
कई युद्ध और
ए़क युग बोध
प्रेम के लिए भी
चाहिए ए़क नदी
किसी के भीतर बहती हुई
ए़क युद्ध
कई बार स्वयं से
और ए़क युग बोध
अर्थात आँखों में सपने
संस्कृति और प्रेम
पर्याय हैं
ए़क दूसरे के
जैसे
मेरा पर्याय तुम !
शनिवार, 10 जुलाई 2010
तुम मेरे जीवन में
आँगन में
जैसे तुलसी
मेरे मन में
तुम हो बसी
२
जैसे मंदिर में
दिया की रोशनी
मन में मेरे
तेरी ही रश्मि
३
जैसे शिवालय में
घंटी के
स्वर हैं झंकृत
वैसे ही मन में
तुम हो अलंकृत
४
जैसे पूजा का
आस्था भरा
जल निर्मल
मन में बहती
तेरी स्मृति
सरल, सजल
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
देश के चप्पे चप्पे तक
पहुचने के लिए
खबरिया चैनलों के हाथों कठपुतली हैं हुजूर
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
जब
ए सी वाले हमारे राजधानी के पत्रकार
जाते हैं डर
जाने को जंगलों में
खदानों में
बीहड़ो में
हमारे बाइट्स बिकते हैं
मुफ्त या कौड़ियों में हुजूर
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
देश की गहरी समझ रखने वालो को
नहीं पता है
खोरठा , संथाली , नागपुरी जैसी
कोई भाषा भी होती है हुजूर
लोग नंगे पाँव
पच्चीस पच्चीस मील जाते हैं
नदी नाले जंगल पार करके
या बिना पानी बिजली भी
इस देश में रहती है
बड़ी आबादी
देश की सही तस्वीर तो
रहती है हमारे पास हुजूर
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
हुजूर
हमारे फ़ोन नहीं उठाये जाते हैं
दिल्ली में
लोग मीटिंग्स में होते हैं वहां
लेकिन जब
'किसनजी' की बाइट्स लेनी होती है
रेल की पटरी उड़ जाती है
नजदीकी शहर से २०० किलोमीटर दूर
किस्मत खुल जाती है हमारे मोबाइल की
और घनघनाते हैं हमारे भी फ़ोन हुजूर
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
हुजूर
जब छिनता है
हमारा कैमरा माफिया के द्वारा
उठा कर ले जाती है पुलिस
बेबुनियाद आरोप में
जब आर्थिक परेशानी में
झूल जाता हूँ मैं पंखे या पेड़ से
नहीं बनती कोई खबर हुजूर
स्ट्रिंगर हूँ हुजूर
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
बादल और तुम्हारी हंसी
वैसी ही लगती है
जैसे
बरसता हुआ बादल
ए़क अनोखे
सुर और ताल में
तुम्हारी हंसी
वैसे ही खिलती है
तुम्हारे अधरों पर
जैसे
वारीश के बाद
बूंदे टिकी होती हैं
पत्तों पर
तुम्हारी हंसी का रंग
वैसा ही है
जैसे
भरी बारिश के बाद
गीले गीले पत्तों का
हरा रंग.
तुम्हारी हंसी
पैदा करती है
ए़क इन्द्रधनुष
मन के भीतर
जैसे आसमान में बनता है
यह बारिश के बाद
तुम्हारी हंसी
जिंदगी है मेरी
जैसे
हैं बादल
हमारे लिए
तुम्हारे लिए
खेतों के लिए
नदी के लिए
बरसो बादल
शनिवार, 3 जुलाई 2010
धूल हूँ मैं
धूल
खेत में
जब होता हूँ
रंग होता है मेरा
सोने जैसा
सुनहरा
आशा से भरा
मेहनत कशों के माथे का
होता हूँ तिलक
तो किसी मजुरण के माथे की
बिंदी होता हूँ मैं
धूल हूँ मैं
धूल हूँ मैं
फैक्ट्रियों से निकलता हूँ
तो जलाता हूं
लाखों चूल्हे
पकाता हूँ खुशिया
बिखर जाता हूँ
पराग की तरह
किसी के चेहरे पर लिपट कर
जीवन बहुरंग बना देता हूँ
भविष्य का रंग हूँ मैं
धूल हूँ मैं
किसी गाडी के
पहिये से जब उड़ता हूँ
जीवन को गति देता
प्रगति को पंख देता
समय को चुनौती देता
आसमान को छूने का जज्बा लिए
रफ़्तार होता हूँ मैं
धूल हूँ मैं
सूक्ष्म
अदृश्य
आम होते हुए भी
हर जगह मौजूद
बेहद जरुरी हूँ मैं
धूल हूँ मैं
(कविता जारी है )
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
लौटा दो मेरा बस्तर
तुमने मुझे शर्मशार कर दिया
तुम्हारे नाम से डरते हैं
मेरे बच्चे
पत्नी कभी लौट कर
आने को नहीं कहती
सुना है
पत्ते काले पड़ गए हैं
और हवा में जलते हुए मांस के बदबू आती है
मेरे बस्तर
ऐसे तो ना थे तुम
ना ही ऐसे बस्तर की
कल्पना की थी हमने
लाल रंग
हमारा जीवन था
उर्जा था
आशा का प्रतीक था
नए सूरज का द्योतक था
लेकिन
मेरे लाल रंग को
क्यों कर दिया तुमने बदरंग
मेरे बस्तर
ऐसे तो ना थे तुम
भूख जरुर थी
लेकिन मानुष के खून के भूखे तो ना थे हम
नया सवेरा जरुर चाहते थे हम
लेकिन इतना अँधेरा तो नहीं था
मेरे सपनो की सुबह
मेरे बस्तर
ऐसे तो ना थे तुम
लौटा दो मेरा बस्तर
शांत सहज सरल सौम्य बस्तर