सोमवार, 12 जुलाई 2010

संस्कृति और प्रेम

संस्कृति
ए़क दिन में नहीं बनती
ना ही ए़क दिन में
होता है प्यार

संस्कृति के
निर्माण के लिए चाहिए
सभ्यता का विकास
किसी नदी के तट पर
कई युद्ध और
ए़क युग बोध

प्रेम के लिए भी
चाहिए ए़क नदी
किसी के भीतर बहती हुई
ए़क युद्ध
कई बार स्वयं से
और ए़क युग बोध
अर्थात आँखों में सपने

संस्कृति और प्रेम
पर्याय हैं
ए़क दूसरे के
जैसे
मेरा पर्याय तुम !

14 टिप्‍पणियां:

  1. संस्कृति और प्रेम
    पर्याय हैं
    ए़क दूसरे के
    जैसे
    मेरा पर्याय तुम

    -बहुत गहरी बात कही है आपने.

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  2. अरुण ये हुई न बात गहरी और मजबूत सभ्यता की तरह

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  3. प्रेम की गहराई नाप लेना कोई आसान काम थोड़े ही है

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  4. संस्कृति और प्रेम
    पर्याय हैं
    ए़क दूसरे के
    जैसे
    मेरा पर्याय तुम

    kya bata kahi ...bhaut sahi

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  5. अरुण जी,
    विचार का बादल उठा लेकिन ठीक बरसा नहीँ! बरस जाता तो मौसम बदल जाता! अपने विचार को पुनः सहेजो और देखो कि उसकी यात्रा को गंतव्य मिला कि नहीँ ?
    *आज आपके ब्लाग पर बहुत सी कविताएं पढ़ी ।कविताओँ मेँ अपेक्षाकृत उत्तरोतर निखार है। बधाई !

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  6. संस्कृति और प्रेम
    पर्याय हैं
    ए़क दूसरे के
    जैसे
    मेरा पर्याय तुम

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति....

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  7. संस्कृति और प्रेम
    पर्याय हैं
    ए़क दूसरे के
    जैसे
    मेरा पर्याय तुम !
    अत्यंत उन्नत विचार की कविता ..

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  8. चलिये अब प्रेम की संस्कृति को सींचा जाये।

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  9. प्रेम के लिए
    चाहिए ए़क नदी
    किसी के भीतर बहती हुई
    ........ ज़िन्दगी वहीँ मिलती है संस्कृति वहीँ से निःसृत होती है

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  10. वाह वाह अरुण जी………………गज़ब का चिन्तन है आपका…………………बडा गहरा उतर जाते हैं और हर बार एक नायाब मोती ढूँढ लाते हैं।

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  11. प्रेम के लिए भी
    चाहिए ए़क नदी
    किसी के भीतर बहती हुई
    ए़क युद्ध
    कई बार स्वयं से
    और ए़क युग बोध
    अर्थात आँखों में सपने

    this poem is really brilliant !
    what similarity you brought on the table , just marvelous...

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  12. अत्यंत उन्नत विचार की कविता.........

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