बनाते हुए रोटियाँ
तुम ,
दो रोटियों के बीच
देखती हो स्वप्न
स्वप्न में उडती है
तितलियाँ रंग विरंगी,
आसमान में होता है
चाँद पूनम का, गोल
बिल्कुल रोटियों की तरह
लेकिन भूख मिटाने की बजाय
बढ़ा देता है
तुम्हारी प्यास
स्वप्न में .
जब तक
बेल रही होती हो
रोटियाँ
तुम्हारे भीतर
बह रही होती है
नदी ए़क
नदी में होती है
मछलिया, जिनकी आँखों में
होती है वही चमक
जो रहती हैं
तुम्हारी आँखों में
देख कर मुझे
तवे पर
डालते हुए ए़क रोटी
समानांतर
तुम सेंक रही होती हो
दूसरी रोटी भी
और
चल रहा होता है
तुम्हारे भीतर
द्वन्द ए़क
जिसमें
तुम ही तुम रहती हो
ए़क तुम्हारे भीतर का तुम
और ए़क तुम्हारे बाहर का
अपने कई चेहरे से
परेशान तुम भी
सिंकती सी लगती हो
तवे पर
भीतर और बाहर
दो रोटियों के बीच
तुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश
दो रोटियों के
सिंकने के बीच
तुम निभाती हो
कई भूमिकाएं ।
दो रोटियों के बीच
देखती हो स्वप्न
स्वप्न में उडती है
तितलियाँ रंग विरंगी,
आसमान में होता है
चाँद पूनम का, गोल
बिल्कुल रोटियों की तरह
लेकिन भूख मिटाने की बजाय
बढ़ा देता है
तुम्हारी प्यास
स्वप्न में .
जब तक
बेल रही होती हो
रोटियाँ
तुम्हारे भीतर
बह रही होती है
नदी ए़क
नदी में होती है
मछलिया, जिनकी आँखों में
होती है वही चमक
जो रहती हैं
तुम्हारी आँखों में
देख कर मुझे
तवे पर
डालते हुए ए़क रोटी
समानांतर
तुम सेंक रही होती हो
दूसरी रोटी भी
और
चल रहा होता है
तुम्हारे भीतर
द्वन्द ए़क
जिसमें
तुम ही तुम रहती हो
ए़क तुम्हारे भीतर का तुम
और ए़क तुम्हारे बाहर का
अपने कई चेहरे से
परेशान तुम भी
सिंकती सी लगती हो
तवे पर
भीतर और बाहर
दो रोटियों के बीच
तुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश
दो रोटियों के
सिंकने के बीच
तुम निभाती हो
कई भूमिकाएं ।
नारी के मनोभावो का बहुत ही गहराई से विश्लेषण किया है………किन किन मोडों से गुजरती है एक नारी अपनी ज़िन्दगी मे उसे बहुत ही गहराई से महसूस किया है आपने…………………एक बेहतरीन सोच का परिचायक है ये कविता……………नारी ह्रदय की वेदना को स्वर दे दिया है।
जवाब देंहटाएंवाह्! बेहतरीन रचना!
जवाब देंहटाएंदो रोटियों के सीकने के बीच स्त्री के मनोभावों को जाहिर करने की कोशिश ...!
जवाब देंहटाएंअभी अभी वंदना गुप्ता की एक अकविता २ रोटियों पर ही पढकर आ रही हूँ ..पर वो ख्वाबों में खो गई थीं :) और आपने नारी मन के सारे भाव २ रोटियों में समेट दिए.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना.
इसीलिये तो कहते हैं जहँ न पहुँचे रवि वहँ पहुँचे कवि।
जवाब देंहटाएंदो रोटियों के सिकने के बीच का अंतराल और उसमें समाये सोच के दायरे और उनमें रिश्ते, कवि की नज़र से देखें तब समझ आती है इस जग की विशालता।
बहुत बढि़या कविता।
uttam ati utam per kya ase hee sochte hai aaj ke nari?
जवाब देंहटाएंमेरी टिपण्णी में अकविता को "कविता " पढ़ा जाये .माफ कीजियेगा टाइपिंग मिस्टेक .
जवाब देंहटाएंअर्चना गंगवार जी ने ईमेल से कहा:
जवाब देंहटाएंarun ji
aapki aaj ki rachna tu sahej ke rakhne ke layak hai......
aapne kaise para ye sab .....kyoki man ke bheeter itni utal puthal ho gai ki laga site per na jaker seedha aapko hi iski pratikriya do.......sach mein
अपने कई चेहरे से
परेशान तुम भी
सिंकती सी लगती हो
तवे पर
भीतर और बाहर
bahut bahut khooob roti ke pakne se pahele na jane man ki gaherai mein kitni baate sikti hai
दो रोटियों के बीच
तुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश
isko parne ke baad aapki ek rachna yaad aa gai - कपडे सुखाती औरतें ....aisa hi kuch tha....
दो रोटियों के बीच
जवाब देंहटाएंतुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश
--
आपने
रोटियों के माध्यम से
मन की व्यथा बहुत चतुराई से
प्रकट की है!
bahut badhiya...
जवाब देंहटाएंकमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता.भावों का सुन्दर मिश्रण है
जवाब देंहटाएंऔरत के मनोभावों का बहुत ही मार्मिक और संवेदनशील वर्णन..........
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना.......
दो रोटियों के बीच..कितना कुछ गुजर जाता है..बहुत उम्दा भाव!!
जवाब देंहटाएंअरूण जी.. आज तो आपने सत्यजीत रे के एक टीवी नाटक अभिनेत्री की याद दिला दी.. एक आधे घण्टे में एक गृहलक्ष्मी किन किन परिस्थितियों में कितने अभिनय करती है उसे स्मिता पाटील ने बख़ूबी निभाया था... आज आपकी कविता में वही अभिनेत्री नज़र आई... फ़र्क सिर्फ इतना है कि यहाँ वक़्फ़ा दो रोटियोंके बीच का है...अति सुंदर!!
जवाब देंहटाएंविषय पूर्णतया नया है कविता के लिये।
जवाब देंहटाएंदो रोटियों के बीच
जवाब देंहटाएंतुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश
न कितनी ही रोटियों के बीच जीवन यूं ही गुजर जाता है। बहुत सुंदर
मेरा मानना है किसी रचना को पढ़कर कोई और रचना याद आ जाए यह रचना के लिए अच्छी बात नहीं है। अर्चना गंगवार को आपकी कपड़े सुखाती औरतें याद आ गईं। यह कविता उस कविता की पासंग भी नहीं है। आपकी वह कविता पढ़कर ही मैं आपका फालोअर बना था।
जवाब देंहटाएंयहां जो कुछ आपने कहा है कि वह केवल दो रोटियों के बीच के समय में ही न घटता है, वह लगातार घटता रहता है। कविता में रोटियां का समय पैबंद की तरह लगता है। भाव स्पष्ट नहीं हैं और कविता में विचारों का क्रम बहुत बिखरा सा लगता है। सच कहूं तो निराश हूं इस कविता से।
बहुत अछे भाव के साथ बिम्बों का सधा प्रयोग।
जवाब देंहटाएंbahut ache se chitrit ki gayee ho jaise apki rachna
जवाब देंहटाएंबड़ा सूक्ष्म निरीक्षण है भाई ..गोया वैज्ञानिक न हुए !:)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबनाते हुए रोटियाँ
जवाब देंहटाएंतुम ,
दो रोटियों के बीच
देखती हो स्वप्न
जब तक
बेल रही होती हो
रोटियाँ
तुम्हारे भीतर
बह रही होती है
नदी ए़क
नदी में होती है
मछलिया, जिनकी आँखों में
होती है वही चमक
जो रहती हैं
तुम्हारी आँखों में
देख कर मुझे
laga khud ko dekh rahi hun
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयदि शिल्प पक्ष को थोड़ी सहजता से लिया जाये तो रोटी के बिम्ब की सहायता से आपने बहुत सारी मानवीय संवेदनाओं को उकेरने का लाजवाब एवं सराहनीय प्रयास किया है. काव्य-व्यस्था थोड़ी कमजोर है,मगर सशक्त भाव पक्ष ने उसकी भरसक भरपाई की है.बधाई.
जवाब देंहटाएंकविता तो बेशक अच्छी है पर रसोई में भी पहुँच गए.... अरे कहीं तो उसे भी चैन से जीने दो कहीं तो पीछा छोड़ो. हा ... हा ...
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