शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

लिखते हुए साल की अंतिम कविता


प्रिये  !
लिखते हुए
साल की अंतिम कविता
याद आए मुझे 
कुछ भयावह स्वप्न 
जिन्हें शब्द देना 
नहीं है वश में 

लग रहा है 
मानो किसी प्रार्थनाघर में हूँ 
मेरे चारों ओर हो रहे हैं 
धमाके 
चीख और उसकी ख़ामोशी की सिसकियों के बीच 
लहुलुहान देख रहा हूं 
कुछ अजीब से चेहरे जिनकी हंसी 
लिपटी है तरह-तरह के झंडों में

पृथ्‍वी जोरों से घूम रही है
अपने अक्ष पर, 
गति के ताप से 
पिघलती हुई धरती 
बहाए जा रही है 
शीशे सा चमकता
अपना लावा कानों में


सोचता हूं 
क्या बदलेगा इस विश्व में 
मेरे कुछ असहाय कमजोर शब्दों से 
जब गिरवी रखे जा रहे हैं ताकतवर शब्‍द  
महज हस्ताक्षरों के द्वारा 
जनहित के नाम पर

जिनके नाम पर 
हो रही हैं घोषणाएं 
वे नजर आ रहे हैं  
सलाखों के पीछे. 
उन चेहरों में 
एक चेहरा कुछ जाना पहचाना है 
शायद तुम हो
शायद मैं स्वयं हूं
शायद.....।


प्रार्थना में उठ गए हैं हाथ
छोड़ कर कलम 
सोचता हूं हाथ कब
परिवर्तित होंगे मुट्ठियों में 
लिखते हुए साल की अंतिम कविता . 

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कैलेण्डर

तैयारी है
पुराने वर्ष के कैलेण्डर को
विस्थापित करने की 
ऐसा नहीं है कि
पुराने वर्ष के कैलेण्डर में
नहीं बसी हैं
कुछ मधुर स्मृतियाँ
कुछ रक्तरंजित चेहरे
कुछ इतिहास
कुछ युद्ध
कुछ जीत
कुछ हार
कुछ अनकही
कुछ कहासुनी
फिर भी जगह देने के लिए
भविष्य  को 
होता ही है विस्थापित अतीत .
पुराने वर्ष का कैलेंडर भी. 

कई बार
दस्तावेज बन जाता है
पुराने वर्ष का कैलेण्डर
क्योंकि उसके कुछ तारीख
नहीं होते हैं महज तारीख
गड़े होते हैं उसमे
कई मील के पत्थर 
होते हैं दर्ज कई हस्ताक्षर
कुछ सुनहरी स्याही में
कुछ स्याही के रंग होते हैं काले
फिर भी कह रहा होता है
बहुत कुछ अपने अनुभवों से
पुराने वर्ष का कैलेण्डर

एक तारीख
उठा ली है मैंने
लगा दिया अपने नए कैलेण्डर पर
निकल आया हूँ मैं
नए और पुराने कैलेंडर के
संक्रमण काल से
मिट गया है
मेरा द्वन्द भी.

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

लौटते हुए

लौटते हुए
मेरे साथ
मैं नहीं  था
छूट गया था वह
वही आँगन में पसरे हुए
तुम्हारे कपड़ो के साथ
अमरुद के पेड़ से
लटक गया
और हरसिंगार के छाये में
सो गयी थी मेरी
आत्मा

लौटते हुए
मेरे साथ था
हारे हुए का इतिहास
चीत्कार से भरा
युद्ध का मैदान था
लहुलुहान मेरे भीतर ,
छोड़ आया था जीत
तुम्हारे देहरी

लौटते हुए
ज्ञात हो रहा था
क्षितिज
आभासी है कितना
पृथ्वी और व्योम का
सम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है

लौटते हुए
पूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.

जब लौट रहे थे
पक्षी अपने घोंसले में
सूरज भी लौट रहा था
समंदर की गोद में
बच्चे माँ की आंचल में
बस अकेला था तो मैं
कुछ एकाकी पदचिन्हों के साथ.

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मटर छीलते हुए

छीलते हुए मटर
गृहणियां बनाती हैं
योजनायें
कुछ छोटी, कुछ लम्बी
कुछ आज ही की तो कुछ वर्षों बाद की
पीढी दर पीढी घूम आती हैं
इस दौरान.

सोचती हैं
गृहस्थी के सीमित संसाधनों के
इष्टतम उपयोग के उपाय
पति से साथ
कई बार करती हैं
वाद परिवाद
रखती है अपनी बात

छीलते हुए मटर
फुर्सत में होती हैं
गृहणियां
कई छूटे काम
याद आ जाते हैं उन्हें
जैसे मंगवानी है शर्ट के बटन
खत्म होने वाला है खाने वाला सोडा
कई और भी कभी-कभी वाले काम
स्मृतियों में आते हैं

धूप में जब
छीला जाता है मटर
अलसा जाती है
दोपहर
फिर याद आती है
ससुराल गई बेटी
-जो होती तो बाँध देती केश
और बेटी से मिल आने की
बना ली जाती है योजना
इसी समय.

मटर छीलना
कई बार रासायनिक प्रक्रिया की तरह
काम करता है
उत्प्रेरक बन जाता है
देता है जन्म नए विचारों को
दार्शनिक बना देता है
बुद्ध सा चेहरा दिखता है
गृहणियों का शांत, क्लांत रहित
जबकि स्वयं को छीलती सा
करती हैं महसूस

कई बार तो
तनाव-मुक्त हो जाती हैं
गृहणियां
गुनगुनाती हैं
स्वयं में मुस्कुराती हैं
अपने आप से करती हैं बातें
छीलते छीलते मटर
जब याद आ जाती है
माँ, बाबूजी, बहन

गृहणियां
समय से
चुरा लेती हैं
थोडा समय
छीलते हुए मटर
खास अपने लिए .

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

अर्थशास्त्र

कहा जाता है कि 
अर्थशास्त्र 
एक विज्ञान है 
जहाँ किया जाता है
उत्पादन, वितरण व 
खपत का प्रबंधन 
अंतिम उद्देश्य होता है
संसाधनों का इष्टतम उपयोग
लाभ के साथ 
केंद्र में नहीं होता
आम आदमी. 

मांग और 
आपूर्ति के बीच 
संतुलन बिठाने की कला है 
अर्थशास्त्र 
जबकि मांगें 
की जा रही हैं सृजित 
चाहे-अनचाहे 
और आपूर्ति हो रही है 
छद्म मांगों पर 

अर्थशास्त्र में 
मूल्य के निर्धारण का
आधार होता है 
लागत और मांग 
जबकि बदल गए हैं
मूल्य के आदान ही. 

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

विज्ञापन बनाते हुए


वातानुकूलित
सम्मेलन कक्ष में
बनायी जाती है रणनीति
कैसे छला जाना है
संवेदनाओं को
व्यापक रूप से,
कहा जाता है
उसे 'ब्रीफ'


पहुंचना
होता है
हर घर की जेब तक
कहा जाता है
छूना है
दिलों को


करनी है
संबंधों की बात
दिखानी है
रिश्तों की अहमियत
वास्तव में
लक्ष्य है
इस फेस्टिव सीज़न
जमा पूंजी में सेंध


संस्कृति
और परम्पराएं
तो बस साधन हैं
साध्य है
असीम विस्तार
नए बाज़ार
नए एम ओ यू
कुछ विलय
कुछ अधिग्रहण


विज्ञापन बनाते हुए 
करने  होते  हैं 
कई कई समझौते
हर बार स्वयं से

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

छोटे अखबारों के मार्केटिंग एक्जक्यूटिव

बाज़ार की चकाचौंध
मीडिया की बाढ़ के बीच
निकलते हैं
छोटे अखबार
देश भर से
स्थानीय भाषाओँ में
पूरी प्रतिबद्धता के साथ
या कहिये
अपेक्षाकृत अधिक प्रतिबद्धता के साथ

इनके मार्केटिंग एक्जक्यूटिव  
होते हैं कस्बाई विश्वविद्यालयों से
शुरू हुए नए जनसंचार पाठ्यक्रम में
मीडिया की रणनीति और राजनीति की शिक्षा लिए
दुनिया खरीद लेने /या बेच देने  का जज्बा लिए
लेते हैं लोहा बाज़ार से
चेहरे पर सुदूर अवस्थित किसी स्टील प्लांट से
निकलने वाले इस्पात का तेज लिए
इनके भीतर होती है
अपरिमित ऊर्जा/सम्पदा
जैसे धरती के गर्भ में हैं
प्रचुर  संसाधन
अयस्कों  की भांति होते हैं
ये अनगढ़

जैसे जैसे
निखरती  है इनकी प्रतिभा
मीडिया बाज़ार  की
नज़र पड़ती हैं इनपर
और हैक कर लिए जाते हैं
बड़े अखबारों के
नए संस्करण के लिए
ठीक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के
एम ओ यू के तर्ज़ पर
संसाधनों के इष्टतम उपयोग
और निवेश के नाम पर

छोटे अखबार के
मार्केटिंग एक्जक्यूटिव 
ब्रांड बन कर उभरते हैं
और अस्त हो जाते हैं
रौशनी के अँधेरे में
मीडिया हाइरार्की की सीढी पर
लुढ़का दिए जाते हैं
थोड़े दिनों बाद

जारी रहती है
छोटे अखबार की प्रतिबद्धता
अपेक्षाकृत अधिक प्रतिबद्धता
साथ ही, नए मार्केटिंग एक्जक्यूटिव  की खोज

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

एक बेफिक्र दिखने वाली लड़की


वह जो
३०  वर्षीया लड़की
हाथ में कॉफ़ी का मग लिए
किसी बड़े कारपोरेट हाउस के
दफ्तर की बालकनी की रेलिंग से 
टिकी है बेफिक्री से 
वास्तव में 
नहीं है उतनी बेफिक्र
जितनी रही है दिख .

भय की कई कई परतें 
मस्तिष्क पर जमी हुई हैं 
जिनमे देश के आर्थिक विकास के आकड़ो से जुड़े
उसके अपने लक्ष्य हैं
जिन्हें पूरा नहीं किये जाने पर
वही होना है जो होता है 
आम घर की चाहरदीवारी में 

एक भय है 
उन अनचाहे स्पर्शों का 
जो होता है 
हर बैठक के बाद होने वाले 'हाई टी' के साथ
वह बचना चाहती है उनसे 
जैसे बचती हैं घरेलू औरते आज भी

एक भय 
परछाई की तरह 
करता है उसका पीछा 
लाख सफाई देने पर भी कि 
नहीं है उसका किसी से 
कोई अफेयर 

तमाम भय के बीच 
जब सूख जाते हैं उसके ओठ 
एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा 
तैयार हो जाती है वह 
एक और मीटिंग के लिए 
उतनी ही बेफिक्री से. 
वास्तव में 
जितनी बेफिक्र नहीं है वह. 

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कोरियर ब्यॉय

मिल जाता है
अक्सर ही
दफ्तर की
सीढ़ियों में
चढ़ते उतरते
हाथ में नीला सा बैग लिए
जिस पर छपा है उसकी कंपनी का
बड़ा सा 'लोगो'
कंपनी के कारपोरेट रंग का
यूनिफार्म पहने
स्मार्ट सा कोरियर ब्यॉय

दस मंजिल तक
चढ़ जाता है वह
किस्तों में
हाँफते हुए
भागते हुए
एक दफ्तर से
दूसरे दफ्तर
बांटते पैकेट
लिफाफे
जिसे गारंटी से डिलीवर करना होता है
दोपहर बारह बजे से पहले
कंपनी की कारपोरेट नीति और
प्रीमियम सेवा के लिए
प्रीमियम दाम के बदले

लगता है
कभी कभी
मुझे खेतों के बैल
बंधुआ मजूर सा
वह स्मार्ट सा
कोरियर ब्यॉय
जिसे नहीं पता कि
न्यूनतम मजदूरी क्या है
इस मेट्रो शहर में .

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

कल फिर आना प्रथम किरण के साथ

जाओ
घर भी अब
देखो सूरज
छिप गया है
कुहासे की चादर ओढ़
क्षितिज की ओट में
हरियाली भी
सो गई है
ओढ़ कर शीत का लिहाफ
ऐसे में
तुम्हारा देर तक
मेरे साथ रहना
ठीक नहीं

जाओ तुम
मैं भी चलता हूँ
कल ले आऊंगा मैं
कुछ फूल ओस के
भर कर अपनी मुट्ठी में
और सजा दूंगा
तुम्हारे केशों में
थोड़ी सी गीली धूप
ले आऊंगा तुम्हारे लिए
अपने गालों पर लगा लेना
गुलाबी हो जाओगी तुम
आज की तरह ही
या आज से भी अधिक

मसूर के फूल
नीले नीले से हैं
देखो सो रहे हैं कैसे
मानो आसमान सो रहा हो
ख़ामोशी से
सिहर उठते हैं
कभी कभी
हवा के झोंके से
डर कर
जैसे डर रहे हो हम तुम
किसी की आहट पर ,
दिन भर
चांदी सा झिलमिल करते
यह पोखरा भी
मौन हो गया है
बस कभी कभी
मछलियों के कूदने से
टूटता है इसका सन्नाटा
वैसे ही जैसे
धड़क उठती है
तुम्हारी साँसे
मेरे छूने भर से
सुस्ताने दो
खेतो और तालाबो को
लौट जाओ तुम
अपने घर

फिर लौट आयी तुम !
चलो जाओ भी
देखो परिंदों का दल भी
लौट आया है
अपने अपने घोंसले में
जुगनू फैला रहे हैं
अपने  पंख
तैयार हैं
दिखाने को तुम्हे रास्ता
साथ हो लेना इनके
ऊपर चाँद भी होगा
छोड़ आएगा तुम्हारे
ओसारे तक
डरना नहीं
मैं तो परछाई की तरह
रहूंगा  ही साथ साथ

जाओ तुम
कल फिर आना
प्रथम किरण  के साथ

रविवार, 5 दिसंबर 2010

लिख नहीं पाया कुछ तुम्हारे लिए

प्रिये 
आज दूर हो तुम लेकिन 
लिख नहीं पाया 
तुम्हारे लिए कुछ भी 

हर पल/ हर क्षण लगा
साथ बैठी हो तुम
मेरे कंधे पर
रख लिया है 
तुमने अपना सिर
तुम्हारे केश 
मेरे शर्ट की बटन से उलझ गए हैं
दिन भर मैं
सुलझाता रहा
तुम्हारे केश 
शब्द गए उलझ !

एक बार तो ऐसा लगा
मानो मेरे कानो में 
कुछ कह रही हो तुम
और तुम्हारी उंगलिया
मेरे महीनो से नही कटे बाल को
सहेज रही हो तुम
जैसे सहेजती हो तुम
अपना आँचल
अपनी किताबें
किताबों में पड़ी कुछ चिट्ठियाँ 
सूखे फूल 
पढता रहा फिर से
तुम्हारी किताबों में पड़ी पुरानी चिट्ठियों को और
सूखे फूलों को देखते देखते
सूरज उड़ गया
लगा कर पंख
धूप भी लौट गई
अपने घोसलें में
शब्द नहीं लौटे मेरे पास
साथ जो गए तुम्हारे 

लगा ही नहीं कि 
दूर हो तुम मुझे से किसी भी पल 
और लिखी जाए तुम्हारे लिए
कोई कविता. 

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अफगानिस्तान










भूगोल की किताबों में 
जरुर हो तुम एक देश
किन्तु वास्तव में
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
युद्ध के मैदान से

दशकों बीत गए
बन्दूक के साए में
सत्ता और शक्ति
परिवर्तन के साथ
दो ध्रुवीय विश्व के
एक ध्रुवीय होने के बाद भी
नहीं बदला
तुम्हारा प्रारब्ध 
काबुल और हेरात की 

सांस्कृतिक धरोहर के
खंडित अवशेष पर खड़े
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
रक्तरंजित वर्तमान से

बामियान के
हिम आच्छादित पहाड़ों में
बसे मौन बुद्ध
जो मात्र प्रतीक रह गए हैं
खंडित अहिंसा के
अपनी धरती से
विस्थापित कर तुमने
गढ़ तो लिया एक नया सन्देश
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
मध्ययुगीन बर्बरता से

जाँची जाती हैं
आधुनिकतम हथियारों की
मारक क्षमता 
तुम्हारी छाती पर
आपसी बैर भुला
दुनिया की शक्तियां एक हो
अपने-अपने सैनिको के 
युद्ध कौशल का
देखते हैं सामूहिक प्रदर्शन
लाइव /जीवंत
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
सामरिक प्रतिस्पर्धा से

खिड़कियाँ जहाँ
रहती हैं बंद सालों  भर
रोशनी को इजाजत नहीं
मिटाने को अँधेरा
बच्चे नहीं देखते
उगते हुए सूरज को
तितलियों को
फूलों तक पहुँचने  की
आज़ादी नहीं
हँसना भूल गयी हैं
जहाँ की लडकियां
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
फिल्मो/ डाक्युमेंटरी/ रक्षा अनुसन्धान के विषय भर से 

सदियों से चल रहा
यह दोहरा युद्ध
एक -दुनिया से
और एक- स्वयं से
सूरज को दो अस्तित्व कि 
मिटा सके पहले भीतर का अँधेरा
खोल दो खिड़कियाँ
तुम अफगानिस्तान
इस से पहले कि
मिट जाए अस्तित्व
भूगोल की किताबों  से .

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

गरीबी का मैग्नेटिज्म

अपने
१४ मंजिले फ्लैट की
बालकनी में खड़ा
वह आदमी
जो उड़ा रहा है
सिगरेट के धुंए  का छल्ला
तेजी से चहलकदमी करते हुए
किसी फिल्म के किरदार की तरह
लगता है आकर्षक
सड़क से

भीतर उसके भी
चल रहा होता है  ऊपापोह 
क्योंकि ई एम आई का चक्र
ठेले और रिक्शे के पहिये के चक्र से
नहीं होता भिन्न
स्टाक के उतार-चढाव का बोझ
किसी कुली के  माथे पर ६० किलो के बोझ से
कतई भी नहीं होता कम

जब सो रहा होता है
फुटपाथ  पर कोई चैन से
आकर्षक लगने वाला वह आदमी
गिन रहा होता है तारों में
बढती हुई  बच्चों की फीस
और आया हुआ बिजली का बिल

सुबह वह आदमी
एम्टास-ए टी की गोली लेगा
नियंत्रित करने को
अपना  और देश का रक्तचाप
ब्रेक-फास्ट  में
और खिल उठेगा
नए बढ़ते भारत का चेहरा
दिन भर के लिए

गरीबी रेखा के
ऊपर भी है अदृश्य गरीबी
जिससे चहल पहल है
बाज़ारों में
जहाँ गरीबी रेखा के
नीचे वाली गरीबी
पैदा करती है आज भी संवेदना
ऊपर की अदृश्य गरीबी
महिमामंडित हो
आकर्षित करती है
ऍफ़ ड़ी आई विश्वभर से .

शनिवार, 27 नवंबर 2010

फ़्लाइओवर के नीचे

तमाम शहर में
अब  फ़्लाइओवर  हैं
हमारे शहर में भी है 
एक फ़्लाइओवेर

फ़्लाइओवर के नीचे
होती है एक अलग दुनिया
शहर के बाहरी आवरण से अलग 
होती है उसकी प्रकृति 
उसका चरित्र 

सभी प्रकार के गुप्त रोगों के 
शर्तिया इलाज करने वाले कई डाक्टर 
एक का दो, दो का चार वाले खेल 
सस्ते देह का सस्ता बाज़ार 
होता है गुलजार यहाँ 
चौबीस घंटे 
कभी दिन के उजाले में 
तो कभी सांझ के धुधंल्के में 
और कभी पीले हलोज़न की पीली रौशनी में 

बनती हैं योजनायें 
शहर में शांति की
शहर में अशांति की
जो होते हैं अखबारों की सुर्ख़ियों में
अक्सर रात को 
'डील' करते पाए जाते हैं यहाँ, 
तनाव में जब होता है शहर 
उत्सव होता है 
इस फ़्लाइओवर के नीचे

शहर का असली चरित्र /असली परिचय 
होता है फ़्लाइओवर 
और उसके नीचे की दुनिया 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

पुराने स्वेटर

आज
माँ उधेड़ रही है
पुराने स्वेटर
भीगी आँखों से
और एक चलचित्र चल रहा है
उसके भीतर 

कैसे माँ बुनती थी
स्वेटर
जाग कर 
रात रात भर
सोच सोच कर 
खुश हो रही आज 

याद आ रहा है उसे
कैसे स्वेटर में
भर देना चाहती थी
वो सब कुछ
जो नहीं दे पाती थी वो
जैसे चाँद - सितारे
हाथी घोड़े
गुड्डे-गुडिया
लेकिन नहीं बनाया  उसने
स्वेटर में कभी
बन्दूक का डिजाईन

उसे प्रिय था
नीला रंग
कहती थी
आसमान का रंग है यह
और प्रार्थना में
हिल जाते थे होठ
कि आसमान जितनी ऊँची हो
हमारी उपलब्धि
समंदर तो कभी देखा  नहीं
फिर भी करती थी
नीले समंदर  के सामान
विशाल ह्रदय की कामना
मेरे लिए
मैल पचने के लिए भी
अच्छा रंग हुआ करता है नीला 
पता था माँ को भी 

आज माँ
उन्ही
पुराने स्वेटरों को
उधेड़ कर
बना रही है नया स्वेटर
अपने लिए 
बना रही है
एक कोलाज अपने भीतर
अलग अलग समय के पुराने स्वेटरों से
जिस स्वेटर को पहन कर 
दी थी मैट्रिक की परीक्षा
बहुत प्रिय था माँ को
सहेज कर रखी थी उसे आज तक 

ऐसे ही कई
मील के पत्थर स्वेटर थे
माँ की पेटी में 
जिन्हें उधेड़ रही है आज 
माँ
जी रही है
पुराने ऊन के माध्यम से
सुनहरे दिनों को
उनके फीके पड़ते रंगों में
ढूंढ रही है हमारे बचपन के
चटक रंग को
रिश्तो की गर्माहट को
सहेज रही है
पुराने ऊन को फिर से
बुन कर 

पुराने ऊन के स्वेटर में 
जी रही है माँ 
नया जीवन
नए सिरे से 

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

६० बरस दूर

शहर से 
कोई पचास किलोमीटर होगा
मेरा गाँव
जहाँ तक पहुँचने में 
यो तो लगेंगे 
कोई तीन ही घंटे 
लेकिन यकीन मानिये
यह  दूरी है कम से कम 
६० बरस .

६० बरस 
क्योंकि 
शहर से 
जब बढ़ेंगे 
मेरे गाँव की ओर
दिखेंगे आपको
सूखे खेत 
सूखे चेहरे 
बिन पानी की   नहर
बिन पानी के चेहरे 
६० बरस पुराने/खियाए चेहरे 

६० बरस 
क्योंकि
अभी नहीं पहुंची है
रौशनी यहाँ , 
बिजली के खम्भे 
जो गड़े थे 
शास्त्री जी के ज़माने में
खाकर जंग अब नहीं रहे 
उनके  अवशेष भी
नहीं है शेष. 

६० बरस 
इसलिए भी 
क्योंकि 
हर साल मरती हैं
कुछ बेटियाँ 
कुछ भाभियाँ
प्रसव  के दौरान
रेडियो पर 
सरकार की तमाम 
घोषणाओं के बावजूद . 

६० बरस 
इसलिए भी कि
योजनाओं को यहाँ पहुचने में 
लग गए हैं 
वाकई में 
६० बरस. 
अब भी पहुचेंगे 
इसकी गारंटी के लिए 
वैसे तो बनी हैं गारंटी नाम से कई स्कीमे 
लेकिन स्कीमों का क्या !

रेल में सवार हो
जाते हैं जो
लौट कर नहीं आते
तय नहीं कर पाते  
वापसी का सफ़र
क्योंकि 
मेरा गाँव 
अब भी 
इंडिया से पीढ़ियों दूर है 
प्रायः ६० बरस दूर. 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

हीरक रोड


आजादी के
साठ  साल बाद
एक सड़क आयी
मेरे गाँव भी
जिस कम्पनी  ने
बनाया इसे
उसी के नाम पर
हो गया इसका नामकरण
'हीरक रोड'

हीरक रोड
से चल कर
आया मेरे गाँव में
मोबाइल फ़ोन
पाउच वाले शैम्पू, तेल,
कोल्ड ड्रिंक और
इसी सड़क के किनारे-किनारे
उग आयी दारु के
कई भट्टियाँ 


नहीं जो आया
इस सड़क से
वो था
हाई स्कूल
कालेज
प्राथमिक अस्पताल
बिजली के खम्भे
राशन, कैरोसिन  तेल
खाद-पानी-बीज

हीरक रोड
आयी मेरे गाँव में
नहीं आयी
जिसे आना चाहिए था
वास्तव में

इसी सड़क से
पलायन हुए
संस्कार भी

शनिवार, 20 नवंबर 2010

चौखट

सूरज जब तक
चूमता है चौखट
माँ बुहार लेती है
आँगन ओसारा
ले लेती हैं बलैयां
दे देती है दुआएं
चूल्हा  धुआंने लगता है
और खिलखिलाने लगती है ख़ुशी
माँ के चेहरे की तमाम झुर्रियों के बीच

जब सूरज चढ़ता है
दोपहर भी अलसाती  है
सोती  है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों  के साथ

होता है जब
सूरज जाने को
चौखट पर
रख देती है माँ
एक ढिबरी
कहती है
सूरज की  मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की  रौशनी में

भाई राजेश उत्साही जी के सलाह पर इस पद को कविता से अलग कर रहा हूँ...
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

माँ रखती है देवउठनी एकादशी का व्रत

(यूं तो पूरे देश में देवोत्थान एकादशी का पर्व मनाया जाता है लेकिन बिहार के मिथिला अंचल  में इसे खास तरह से मनाया जाता है. आँगन में अरिह्पन (अल्पना- एक तरह की रंगोली) बनाया जाता है जिसमे औरतें घर की जरूरतों से लेकर जो कुछ भी जीवन में चाहिए, उनके चित्र उकेर देती हैं. एक तरह से ईश्वर से मौन अर्चना होती है यह. इसी परंपरा को समर्पित यह कविता. )  


माँ 
रखती है व्रत  

माँ
मानती है कि
ईश्वर 
विश्राम के लिए चले जाते हैं
हरिशयन एकादशी को
और जागते हैं 
देवउठनी एकादशी की रात्रि

इस रात 
पूरी होती है सभी जरूरतें
सच होते हैं सपने सबके
माँ को लगता रहा है
वर्षो से 

और लगता रहेगा 
उसके रहने तक 
नहीं बदलना चाहती है
माँ अपनी आस्था 
समय के साथ 


देवउठनी एकादशी 
की रात
माँ बनाती है अल्पनायें 
जिन्‍हें देख कर लगता है
उसके हैं 
कुछ सपने
मेरे लिए
हमारे लिए 
हम सबके लिए 
वरना माँ को नहीं देखा 
मांगते कभी कुछ 
किसी से भी 

बस इस एक रात 
माँ खोलती है
अपने सपनों की पोटली 
अपने भीतर बसी इच्छाएं 

बनाती है 
हल बैलहरवाहा 
बैलों के बिक जाने के बाद भी 
ढेर सारी मोटी मोटी 
किताबें बनाती है 
शायद चाहती है दुनिया पढ़ जाए 
हवाई जहाज /संदूक /गुल्लक
सब बनाती है माँ 
अल्पना में ही
भर देती है नदी को
पानी से 

और इस बार रेडियो पर 
जो सुन लिया है उसने 'ग्लोबल वार्मिंगके बारे में
बनाई है 
एक सुन्दर पृथ्वी 
गोल गोल और 
रोप दिए हैं उस पर 
अनगिनत पेड़.  

अपनी समस्त 
चिंताओं और सरोकारों के साथ 
माँ रखती है 
व्रत 
एकादशी का / 
देवउठनी  एकादशी का 

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

अपनी चिट्ठियों की चिंता में


हार कर नहीं
स्वेच्छा से चेहरे पर हंसी लिए
मरना चाहता हूँ मैं
आत्महत्या नहीं होगी यह

पता है मुझे
मेरे जाने के बाद
सब कुछ ठीक हो जायेगा
बेटियाँ चली जाएँगी
ससुराल
बेटे व्यस्त हो जायेंगे
अपने में
पत्नी भी
श्रंगार  पेटी में रखी
शादी के समय की तस्वीर को
फिर से बनवा कर
दीवार पर टांग देगी
फिर रम जाएगी
भजन कीर्तन में
मर नहीं पा रहा मैं
क्योंकि
नहीं पता मुझे
क्या होगा
मेरे प्रेम पत्रों का
जिन्हें दशको से
सहेजा है मैंने
पत्नी, पुत्र और  पुत्री की तरह.

जब भी अकेला हुआ हूँ
इन्ही पत्रों ने  दिया है
मेरे अकेलेपन का साथ
जब भी चौराहे पर
पाया मैंने खुद को
इन्ही पत्रों ने  किया मेरा
मार्गदर्शन
कई बार
नदी के ऊपर के पुल से
लौटा हूँ बस इनके लिए ही

हजारों जुगनू
चमकने लगते हैं
यदि रात में खोल दो इन्हें
दिन में तितलियाँ उडती हैं इनसे
महकती हैं ये चिट्ठियां
ताजे गुलाब की तरह
कई बार तो महसूस किया है
पत्नी के गजरे की खुशबू भी
अपने हर जन्मदिन पर
उपहार की तरह लगती हैं ये

सोचता हूँ
मरने से पहले
किसी नदी में
प्रवाहित कर दू
अस्थियों की भांति
इन चिट्ठियों को
लेकिन डरता हूँ
कैसे रह पाउँगा
अपने बचे-खुचे दिनों में
इनके बिना

जब तक हैं
ये चिट्ठियां
मर नहीं सकता मैं
कह रहा है
वर्षों का साथ

सोमवार, 15 नवंबर 2010

तुम्हारी बिंदी













होना चाहा था
मैंने  तुम्हारी बिंदी
तुमने कहा
बन जाओ
उतार दिया तुमने
अगली सुबह

खुश थी तुम
जब मैं ने कहा था
बना लो
अपनी बिंदी मुझे
तुम्हारी हाँ से
खुश हुआ था
मैं भी कितना
आज जब
मिल नहीं रहा था
मेरा रंग
तुम्हारी साडी के रंग से
तुमने देखा भी नहीं
मेरी ओर

एक बार
तुमने कहा था
मुझे
अपने माथे की बिंदी
मैंने वादा किया
चमकने को चिरंतन
मैं चमकता रहा
सूरज की तरह
दिन भर
उतारती रही तुम
हर रात .

रविवार, 14 नवंबर 2010

डरता हूँ मेरे बच्चे

अभिनव और आयुष जिन्हें यह कविता समर्पित है. 










कार्टून चैनलों के 
काल्पनिक पात्रों 
और चरित्रों में 
जब तुम्हारी 
डूबी आँखों को देखता हूँ
भविष्य का रंग
मुझे काला दिखने लगता है 
डांट नहीं पाता मैं
अपने पिता की तरह
क्योंकि स्वयं को 
कमजोर पाता हूँ मैं . 

तुम्हारे यूनिट टेस्ट के
सामान्य ज्ञान विषय के 
प्रश्न पत्र में जब देखता हूँ 
कुछ कारों के मॉडल,
टी वी  चैनलों के लोगो 
या फिर कार्टून के चित्र 
जिन्हें पहचानना होता है तुम्हे 
नाम लिखना होता है उनका 
मैं खुद हल नहीं कर पाता 
यह प्रश्न पत्र 
असफल पाता हूँ स्वयं को 
हताश हो जाता हूँ मैं . 

जब चाहता हूँ
लिखो तुम एक निबंध 
गाय पर
दिवाली पर
होली पर
नेहरु जी पर
गाँधी जयंती पर
बाढ़ की विभीषिका पर
या फिर किसी यात्रा वृत्तांत पर
तुम्हे तैयारी करनी होती है
डांस प्रतियोगिता की 
या फिर स्केटिंग  की
बदलते परिवेश में 
तुम्हारे बदलते तेवर को देख
खुश होते हुए भी
खुश नहीं हो पाता मैं 

तुम्हारी ख़राब होती 
लिखावट को देख 
चाहता हूँ थोड़ी और मेहनत करो तुम 
अपने हैण्ड राइटिंग पर 
तुम्हारी दलील कि आगे सब कुछ 
लिखा जाना है कंप्यूटर पर 
हार जाता हूं मैं लेकिन
ख़ुशी नहीं होती तुम्हारी जीत पर भी 

जब तुम 
सो रहे होते हो
तुम्हारे चेहरे पर
मंद मुस्कान तिरती रहती है
देवदूत से लगते हो तुम 
जिन्हें देख 
रोता हूँ 
हँसता हूँ
एक अदृश्य भय से 
डरता हूँ मेरे बच्चे 
और तुम्हे गले लगा 
सो जाता हूँ मैं भी 
ना जाने कब तुम कहने लगो
'पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी !'

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

उम्र

बहुतों को
नहीं पता  होती  है
उनकी उम्र 
नहीं पता मुझे भी

असंख्य बचपन
जब असमय ही
दब जाते हैं
तरह तरह के बोझ तले
कौन बता सकता है
उन बचपनो की उम्र

कुछ बचपन तो
नहीं हो पाते युवा
अनुभव बना देता है
उन्हें व्यस्क
अब इस असमय वय की
क्या है उम्र , कौन कहे ?

अब
लड़कियों को ही देखिये
वे बचपन से ही होती हैं
गृहस्थ
अब ऐसी लड़कियों की
कुछ भी हो  उम्र
क्या फर्क पड़ता है उन्हें

असमय ही
सफ़ेद  हो गए
मेरे केश
 पूछते रहे लोग
मेरी उम्र 
हर मोड़ पर
हर नुक्कड़ पर
हर मौके पर
अब क्या उत्तर दूं मैं


स्कूल जाने की उम्र  में
कभी धो रहा था
चाय की केतली
कभी बना रहा था
साईकिल का पंक्चर
कभी बेच रहा था
बस अड्डे पर नारियल
कभी कभी
जेब भी कतरे

सपने देखने की उम्र  में
बजा रहा था
शादी ब्याह में बैंड
रंग रोगन कर रहा था
हवेलियों  और कोठियों की दीवारें
ठेल रहा था ठेले- रिक्शा 
धो रहा था बस-ट्रक

अब
कहते हैं लोग
निकल गई है उम्र 
समझ नहीं पा रहा
ये उम्र
जब आई ही नहीं तो
निकली कैसे .

सोमवार, 8 नवंबर 2010

दाढ़ी बनाते हुए घायल होना


नित्य
दाढ़ी बनाना
किसी के लिए
बहुत आम है तो
किसी के लिए
बहुत ही खास


हमारे गाँव में
कई तो ऐसे थे
जो इन्तजार करते थे
किसी के मरने या बरसी का
कटवाने को दाढ़ी- बाल
लेकिन वो अलग बात है
जिसकी चर्चा भी शहरों में नहीं होनी चाहिए
क्योंकि वह एक अलग भारत हैं
अलग भारत का अलग अनुभव है


 यहाँ शहर में भी
लोग बचाते हैं
ब्लेड का पैसा
और दिन नागा करते हैं
दाढ़ी बनाने में
शनि मंगल और गुरु के नाम पर
लेकिन वे लोग
गाँव के उन लोगों से बहुत भिन्न नहीं हैं
जो करते हैं किसी के मरने या बरसी का इन्तजार


 वैसे व्यक्तित्व को
परिभाषित करने लगी  हैं दाढ़ी
लेकिन
जो बात समान है गाँव-देहात से शहर तक में
वो यह है कि
शीशे के सामने
दाढ़ी बनाना
एक दिनचर्या होने के साथ साथ होती  है
एक आध्यात्मिक अनुभूति
अनेक   विचार उपजते हैं
इस दौरान
और कई बार
लग जाता है ब्लेड
इसी उधेड़ बुन में
स्वयं से भी
और नाई से भी


बेटे की मार्कशीट
टीवी सीरियल के पात्र
सिनेमा के हीरो
पत्नी की फरमाईशें
राशन का हिसाब-किताब
स्टोक एक्सचेंज का उतार -चढ़ाव
क्रिकेट के स्कोर
और बीच बीच में
माँ का भावुक कर देने वाला चेहरा 
सब एक एक कर
उभरते हैं शीशे पर
जब कभी
खो जाते हैं हम
ब्लेड कर जाता है अपना काम
छोड़ जाता है
अपनी निशानी
हफ्ते भर के लिए


वैसे
ब्लेड का लग जाना
बात आम है
लेकिन इतना आम नहीं भी है
क्योंकि
पिछली बार जब हुए थे
शहर में दंगे
हफ्ते तक बार बार
घायल हो जाता था मैं
दाढ़ी बनाते हुए

सैकड़ो
अनुतारित्त प्रश्न
आज भी
शीशे में उभरते हैं
घायल करते हैं मुझे
दाढ़ी बनाते हुए


आज
एक अजीब सा प्रश्न
घायल कर गया  मुझे
कि दाढ़ी बनाने वाला
अदना सा यह ब्लेड
यदि ठीक से
डिस्पोज़ ना हो तो
कितनो को आहात कर देगा
साथ ही
कूड़ा उठाने वाले का रक्त रंजित  हाथ 
कूड़े घर में आवारा घूमती गाय  का खून से सना थूथना
और ना जाने   कौन-कौन से चित्र 
उभर  आये  शीशे  पर
सुबह-सुबह 
दाढ़ी बनाते हुए

 
दाढ़ी बनाते हुए
घायल होने से लगता है
बची है संवेदना 

हमारे भीतर

बुधवार, 3 नवंबर 2010

छद्म दीपोत्सव

राम
जब हुआ था तुम्हारा 
राज्याभिषेक  
दीप जले थे  
अयोध्या में 
रामराज्य के स्वागत में

रामराज्य ने 
सरयू में 
समाधि ले ली 
तुम्हारे साथ ही
फिर यह कैसी 
दिवाली 
क्यों यह 
दीपोत्सव 

हे राम 
तिमिर और भी 
गहराता जा रहा है
मन के भीतर हमारे
ज्यो ज्यो 
प्रकाशमान हो रहे हैं 
उत्सव

लक्ष्य विहीन
वैभव विहीन 
अयोध्या यह  देश 
कहो ना 
कब तक मनायेगा 
छद्म दीपोत्सव

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

फूल हूँ मैं

फूल को
देखा है कभी
लगते हैं
कितने प्रिय
कितने मोहक
और
अपनी सुगंध से
सुवासित कर देते हैं
परिवेश

खुशबू 
पसर  जाती  है 
वातावरण में 
मनोहारी हो जाते हैं दृश्य 
मन महक जाता है 
फूलों का 
पा कर सानिध्य

लेकिन प्रायः
महसूस नहीं किया होगा
डाली से टूटने का
उसका दर्द
उसके पंखुडियो के
असमय बिखर जाने की वेदना से
परिचित नहीं होगी तुम

फूल है
मेरा प्रेम
जिसे भय है
तुमसे विस्थापन का,
तुम्हारी डाली से 
विच्छेदन का
असमय 
कुम्भला जाने का

फूल हूँ मैं
इसमें क्या कर सकती हो
तुम भी