शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

अन्नपूर्णा हो तुम

जब तुम
रसोई में होती हो
अन्नपूर्णा होती हो
समा लेती हो सारी कमियाँ
समेट लेती हो सब कमी बेशी
बस पकाती हो
प्यार
संतोष
भाव
और
प्रेम
साथ बैठ कर खाना
साथ बैठ कर खिलाना
क्या किसी आशीर्वाद से कम है


जब तुम
बुहार रही होती हो
घर आँगन
दूर कर रही होती हो
सारे अपशकुन
समस्त लोभ
सभी विकार
और
शुद्ध कर रही होती हो
सबका मन
दूषित हो रही इस दुनिया में
अप संस्कृतियों के बिना रहने के लिए प्रेरित करना
किसी आशीर्वाद से कम है क्या

6 टिप्‍पणियां:

  1. सच है ... तुम माँ भी हो ... पत्नी भी हो ... बहन भी हो .... बेटी भी हो ..... तुम अंनपूर्णा हो ...
    बहुत अनुपम रचना है ...

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  2. बड़ी सुन्दर कविता, प्रभावी व हृदयस्पर्शी।

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  3. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
    आनंद आया पढ़कर.

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