बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अधूरापन : कुछ हाइकू



१.
पूर्णता 
स्वप्न है
अधूरापन है
सत्य 

२.
पूर्णता 
मिथ है 
अधूरापन है
हकीकत 

३.
पूर्णता 
माया है
अधूरापन है
अध्यात्म 

४.
पूर्णता 
मोह है
अधूरापन है
मोक्ष 

५.
पूर्णता 
मृत्यु है
अधूरापन है
जीवन 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

कैलेण्डर के पन्ने


पन्ने बदल जाते हैं 
कैलेण्डर के 
हर महीने और
आखिर में 
कैलेण्डर ही
बदल जाता है
उतार दिया जाता है 
दीवार से
मन के कोने से 

कितना साम्य है
कैलेण्डर

और जीवन में
जहाँ रिश्ते 

महज पन्ने हैं

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

प्रेम : कुछ क्षणिकाएं


१.

प्रेम से 
होता है पराजित 
विज्ञान 
अर्थशास्त्र भी 

२.

प्रेम 
गढ़ता है
नया 
भूगोल 

३.


प्रेम 
देता है 
जन्म 
नए विषयों को 
जो समुच्चय होता है
दर्शन शास्त्र और 
मनोविज्ञान का 


४.

प्रेम से
उत्त्प्रेरक है
जबकि रासायनिक नहीं है
इसका चरित्र 

५.

प्रेम पर
लिखी गई हैं
अनगिनत ऋचाएं 
फिर भी
हर कविता लगती है
नई सी 


सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी से एक संवाद


(अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार के बाद किसी की  ग़ज़ल में यदि क्रांति थी तो वे थे अदम गोंडवी. वे नहीं रहे. उन्हें कई बार प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला.एक बार धनबाद भी आये थे एक कवि सम्मलेन में.रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी को समर्पित एक कविता. शायद कभी प्रत्यक्ष मिलता तो यही कहता जो कविता कह रही है.)




पता है 
तुम नहीं रहे 
और कोई खबर नहीं बनी 
किसी भी सर्च इंजन में
तुम्हारा नाम , परिचय 
तुम्हारी कवितायेँ, ग़ज़ल नहीं आती हैं
तुम किसी लेट्रेरी फेस्टिवल के अतिथि भी नहीं बने
कहो फिर क्यों बनती कोई खबर 

तुम मंच से कविता कहते थे
तो सच लगता था
रोये खड़े हो जाते थे
मुट्ठियाँ भिंच जाती थी
लेकिन क्या उस से बदल जाती है 
लोकतंत्र की प्रणाली 
तुमने कहा था 
फाइलों के जाल में उलझी रौशनी
सालो साल नहीं आएगी गाँव में
चीख चीख कर गाते रहे तुम 
ग़ज़ल लिखने से बेहतर होता 
मांग लिया होता 
कोई लोकपाल 
कह दिया होता सरकार से 
बनाने को सिटिज़न चार्टर 
तुम भी रहते खबर में 
रोज़ मापा जाता 
तुम्हारा भी रक्तचाप
एम्बुलेस खड़ी होती 
तुम्हारे मंच के पीछे 
लेकिन तुम तो 
पीछे ही पड़ गए थे
विधायक के 
जो भुने हुए काजू और व्हिस्की  के जरिये
चाहता था रामराज लाना 

अदम साहब
तुम तो चले गए
वे विधायक अब भी हैं
 व्हिस्की  और भुने हुए काजू के साथ
तरह तरह के गोश्त परोसे जाने लगे हैं 
अब भी फाइलों में उलझी है रौशनी 
ठन्डे चूल्हे पर अब भी चढ़ती है 
खाली पतीली 
दीगर बात है कि
लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रो के परिसीमनो के बाद
बढ़ गई है इनकी संख्या 
कुछ मंत्री बन गए हैं 
और जो मंत्री नहीं बन सके 
बना दिए गए हैं आयोगों और समितियों के सदस्य 
उधर ठन्डे  चूल्हों की संख्या भी बढ़ गई है

यदि आप लिखे होते 
अपने गाँव के पकौड़ो और जलेवियों के बारे में
या फिर अपने जीवन में आने वाली महिलाओं  के बारे में
थोडा सच थोडा झूठ 
आये होते लोग आपकी भी शोक सभा में 
छपी होती आपकी तस्वीर भी 
किसी अंग्रेजी अखबार में 
लेकिन आपकी गजले तो उतारू थी हाथापाई पर 
इस व्यवस्था के साथ 

एक बात कहूँगा फिर भी 
सिंह साहब
आपके जाने के बाद भी
गरजेंगी आपकी ग़ज़लें और 
डरेगी यह व्यवस्था  ! 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

गृहस्थी : कुछ क्षणिकाएं



१,
आटा 
थोडा गीला
फिर भी गीली
तुम्हारी हंसी

२.
मैं 
तुम 
बच्चे , 
गीले बिस्तर की गंध 
कितनी  सुगंध 

३.
न कभी 
गुलाब 
न कोई 
गीत 
फिर भी जीवन में 
कितना संगीत 

४.
सूखी रोटी
नून 
और तेरा साथ , 
आह ! कितना स्वाद 

५.
तीज 
त्यौहार पर 
तेरा उपवास 
गरीबी को छुपाने का 
अदभुत प्रयास 

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

क्यों मैं ?

यह श्रृष्टि
जो कल तक
छोटी -सिमटी सी लगती थी
आज अचानक लग रही है
बहुत विस्तृत 

मेरी सोच और
संभावनाओं से परे
प्रकृति स्वयं
एक अंग मात्र है
श्रृष्टि की संकल्पना का
सोच रहा हूँ मैं
किसी दार्शनिक की भांति जो
कल तक तुम्हारी आंचल को
समझता था ब्रह्माण्ड 

इस प्रकृति में
क्यों हूँ मैं
क्या है मेरा अस्तित्व
क्या है मेरे होने का रहस्य
कौंधते हैं ये प्रश्न
स्वयं से करते हुए वार्तालाप
श्रृष्टि के ये मूल प्रश्न
डराते हैं मुझे
भयभीत हो
मैं भागता हूँ
रास्ता नहीं मिलता है मुझे
मिलता है  बंद दरवाज़े
मैं देता हूँ दस्तक
भीतर से नहीं आती है
कोई आवाज़
गहन चुप्पी के बीच
मेरा ही प्रश्न लौट आता है
अब इन प्रश्नों का शोर बढ़ जाता है
और मैं हताश हो
बढ़ जाता हूं
सबसे ऊँचे शिलाखंड की ओर
जहाँ से लौटना
नहीं है कोई सम्भावना

क्यों हूँ मैं (?)
शेष रह जाता है
इस प्रश्न का उत्तर
इसी बीच
एक हवा का झोंका लेकर आता है
एक जानी पहचानी गंध 
मैं लौट आता हूं इसी दुनिया में
बिना किसी और प्रश्न के.  

सोमवार, 7 नवंबर 2011

कुँए का एकांतवास



हुआ करता था
एक दालान 
खलिहान के सामने 
जहाँ तीन जोड़े बैल 
करते थे दौनी 
धान, गेहूं की
इस दालान के उत्तर में था
एक कुआं

कभी सूखा नहीं 
ये कुआँ
१९३४ के भूकंप में भी 
ढहा नहीं था 
परंपरा रही है
हर बैशाख में
उड़ाही होती थी 
कुएं की 
खोले जाते थे सोते
जाग जाता था कुआं
आने वाली प्यास के लिए

समय गुज़रा
खलिहान छोटे हुए
छोटा हुआ परिवार भी
दालान के उत्तर में जो था कुआँ
साझी संपत्ति हो गई,
खेतों के टुकडो के साथ
अकेले पड़ने लगा खलिहान
बैलों के जोड़े बिक गए
दालान हो गया खाली और
पीढियां पलायन कर गईं
नहीं लौटने के लिए 
कुआँ पड़ गया अकेला 
इस दौरान  

उग आये पीपल 
कुएं की दीवारों में 
और पीपल की जड़ें 
धस गईं कुएं की नीव में 
दादा जी की प्रतीक्षारत आँखों के साथ
कुआँ भी करता रहा 
वैशाख का इंतजार 
कुएं की उड़ाही नहीं हुई 
दादी फिर भी आती रही
कुएं के पास
दादाजी के नहीं रहने के बाद भी
अंतिम समय में गंगाजल के स्थान पर
पिया उन्होंने उसी कुएं का ही पानी
अंतिम बार था जब
कुएं में डाली गई डोल-डोरी

बिना किसी भूकंप के 
कुआं खंडहर हो गया है
चला गया है एकांतवास में 
नहीं लौटने के लिए कभी. 

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

दिवाली के बाद : कुछ चित्र


१.

दीप सब बुझ चुके हैं
तेल सब हो गए हैं ख़त्म
बाती जल चुकी है आधी
कैसी यह उदासी (?) 

२.
सड़क के उस ओर के
कुछ बच्चे 
सुबह सुबह बीन रहे हैं
अधजले पटाखे, फुलझड़ियाँ
दिन भर सुखायेंगे उन्हें
शाम को होगी 
उनकी दिवाली (शायद) 

३.
घर से बाहर 
पडी हैं पिछले साल की 
लक्ष्मी गणेश की मूर्तियाँ 
विसर्जन की प्रतीक्षा में 
बाबूजी गौर से देख रहे हैं 
(ढूंढ रहे हैं कुछ साम्य )



बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

दीपावली : कुछ चित्र



१.
महानगर की
लालबत्ती पर
कटोरे में 
लक्ष्मी गणेश की मूर्ति लिए
एक करीब सात साल का लड़का 
ठोक रहा है बंद शीशा
मना रहा है दीपावली 

२.
दीपावली पर
हार्दिक शुभकामना के कार्ड 
छापते छापते
सोया नहीं है वह
पिछले कई रातों से
आँखें दीप सी चमक रही हैं
ओवर टाइम के रुपयों को देख 
आज सोयेगा मन भर 
पटाखों के शोर के बीच 
मनायेगा दीपावली 

मिठाई के डब्बे पर 
चढाते चढाते
चमकीली प्लास्टिक की पन्नी
आँखों के चमक भी 
हो गईं हैं प्लास्टिक सी 
अब नहीं देखता है वह
सामने खड़े ग्राहक की ओर
वह तो मनाता है दीपावली 
दशहरा, तीज, करवाचौथ को भी 

४.
गोबर से लीपे हुए आँगन में
माँ करती है इन्तजार
दीप जलते जलते 
बुझ जाता है
आधी रात के बाद
वर्षों से कई माएं मानती हैं
ऐसे ही दीपावली 

५. 
जलाते हुए तुलसी पर एक दीप
उन्हें मेरी याद जो आ गई
दिए की लौ से 
जल सी गई उंगलिया 
दीप और आँखों का तेज़
बढ़ सा गया 
रंगोली आ के टिक गयी 
गालों पर 
दीपावली विशेष हो गया 


ज्योतिपर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामना ! 

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

धूप बातें करती हैं

कंक्रीट की अट्टालिकाओं में 
उगे काँटों से छलनी 
सुबह की धूप
लौट जाती है
दोपहर में बंद दरवाज़े से
बजा कर घंटी
कोरियर बॉय की तरह

शाम को बंद खिडकियों से
झाँकने के जुर्म में
जो चढ़ा दिए गए हैं मोटे परदे
उनसे टकरा कर
चोटिल होती धूप
चिडचिडी रहती है 

जबकि दूर मेरे गाँव में 
 सुबह सुबह
रसोईघर की टूटी खिड़की से झांक कर
चूम जाती है धूप
माँ का माथा
पहली फुर्सत में
पश्चिम के ओसारे पर
खेलती है पूजास्थल से हटाये गए
बासी फूलों  के साथ

माँ के नहा कर लौटने के बाद 
धूप आँगन के इस ओसारे से 
उस ओसारे पर बैठती है
बतियाती है फुर्सत से 
बांटती है नई पुरानी बातें
कई बार माँ  खोल देती है
यादों की संदूकची
धूप के सामने ही
और ताज़ी हो जाती हैं
यादें, मेरे पहले कपडे,
ननिहाल से मिली कटोरी चम्मच 
जो दिए थे नानी ने मुंडन पर
माँ रोती है नानी को करके याद 
गीली हो जाती है दोपहर 
पिघल जाती है धूप  भी  

बहुत बातें करती है
मेरे गाँव की धूप

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

गए जो हो परदेस

(गाँव से दिल्ली आये ग्यारह साल हो गए. गाँव से जुड़ा रहा गहरे से. लेकिन कभी दशहरा  पर गाँव नहीं जा पाया था इस दौरान. इस बार गया था. पूरे दस दिनों के लिए. त्यौहार के मौके पर पति के परदेश से लौटने पर प्रतीक्षारत पत्नियों की  आँखों में चमक को देख उनकी उदासी का अंदाज़ा भी लगा. आज भी हजारों स्त्रियाँ अकेली होती हैं पति के परदेस  जाने के बाद. शायद हम समझ ना सकें उन्हें. वह दर्द नहीं टीस होती है जिसमे निकल  जाती है पूरी उम्र . उन्ही स्त्रियों को समर्पित ये क्षणिकाएं ) 

१. 

भीत
बारहों महीने
गीली रहती है
जब से तुम गए हो
परदेस 

२.

चूल्हा 
अब अकेला
नहीं जलता 
साथ देती हूं मैं
तुम्हारे जाने के बाद 

३.

ओसारे पर
धूप चली जाती है
करके इन्तजार
जैसे मैं 

४.

गाय हो गई है
गाभिन 
ताने मैं सुन रही हूं 
क्या करू  इर्ष्या 
अब इसी से 

५. 

तुम जो पहिरा के गए थे
हरी वाली चूड़ी 
अब भी वही चल रही है
कलाई में 
रहते थे तो 
कितनी टूटती थी ये 
मजबूत है 
हम दोनों  का जियरा .

६.
पिछली चिट्ठी में
जिक्र था सबका
बस मैं ही तो 
रह गई थी
फिर भी है
अगली चिट्ठी का 
इन्तजार 

रविवार, 9 अक्टूबर 2011

दूरियां


(अपनी पत्नी के लिए जो सप्ताहभर दूर रही )

दूरियां 
नहीं मापी जाती है
किलोमीटर में
सदैव 

२.
कुछ दूरियाँ 
मापी जाती हैं
दिनों में 
महीनो में
सालों में
युगों में


दूरियाँ 
दिखाई नहीं देती हैं
फिर भी होती है
कई बार

कुछ दूरियाँ
दूरियाँ नहीं होती 
होकर भी 

कुछ दूरियां 
की जाती हैं
महसूस
माप नहीं सकते
आप उन्हें

दूरियां 
लाती हैं 
निकटता 
कई बार 

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

सरगर्मी

 

देश के
किसी प्रान्त का
एक विधान सभा क्षेत्र है यह
किसी भी  राज्य का
हो सकता है
हो सकता है किसी भी
राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व
इस विधान सभा क्षेत्र में

फिर से
हो रहे हैं चुनाव
होने लगे हैं
चुनावी दौरे
एक ही मूल के
अलग अलग रूप में, रंग में
आने लगे हैं राजा
बनने लगी है
रणनीति
इसके विकास की
इसके काया कल्प की
नए राज के पहले सौ दिन में ही
बना दिया जायेगा इसे स्वर्ग
सुना जा रहा है
यह नारा भी
अलग बात है कि
ऐसे दौरे होते हैं
हर पांचवे साल
लगते हैं
मिलते जुलते नारे

राजाओं के साथ साथ
पत्रकारों के भी दौरे शुरू हो गए हैं
कुछ लेकर आते हैं  कापी-कलम
तो कुछ लाते हैं कैमरे
जो जितना ताम-झाम लेकर आता है
सुनने  में आता है कि
उतना ही  ऊँचा दाम पाता है
चुनाव के इस मौसम में

जो उत्साही पत्रकार
ले रहा है
विभिन्न कोणों से
टूटी सड़क का चित्र
उसे मालूम नहीं है कि
उसके प्रभारी संपादक महोदय के घर
भिजवा दिया गया है
चढ़ावा
कलम की कीमत इसी समय
पता लगती  है

पत्रकारों के बाद
मीडिया कम्पनियाँ आती हैं
बड़े दल के साथ
कुछ गीतकार होते हैं
कुछ विज्ञापन लेखक होते हैं
काले शीशे के पीछे से
भांपते हैं
यहाँ की गर्मी
मतदाताओं का मन
उनके पसंद के गीत पर
गुनगुनाने लगता है गीतकार
पैरोडी
दावा करने लगती है
मीडिया कंपनी जीत का
हर रंग के राजाओं के चेहरे खिल उठते हैं
नई पैरोडी सुन कर

मीडिया कंपनी के रणनीतिकार
तेज़ी से लिखने लगते हैं
हर नुक्कड़ हर चौराहे का नाम
जहाँ लगने  हैं बड़े बड़े होर्डिंग्स
गगन चुम्बी कट आउट्स
किराये पर ले ली जाती  हैं दीवारें
कुछ कब्ज़ा ली जाती हैं

रातो रात टंग जाते हैं
बैनर्स पोस्टर्स
चीन से मंगाए गए
सस्ते फ्लेक्स पर
देश के स्वाभिमान और संप्रभुता के लिए
मर मिटने वाले राजाओं के भी


समानांतर रूप  से
तैयार  हो  रही  है
अलग  अलग  रंगों  की  सेनाएं
जो  सेवा  देंगी
तन, मन, धन  और  "गन"  से भी

अर्थशास्त्री  अलग  से
बना  रहे  हैं  योजनायें
समाजशास्त्री  कर   रहे  हैं
अलग अलग मानको पर अध्यनन
जाति उपजाति  धर्म  उपधर्म
सब  की  हो   रही  है
मत-शास्त्रीय विशेष गणना
इस  विधान  सभा  क्षेत्र  के   लिए

युवाओं की
बना ली गई है
अलग सूची
जिनके लिए जुटाई जाएँगी
तमाम सुविधाएँ
क्योंकि युवा देश है अपना
सबसे  अधिक मतदाता
युवा ही हैं

राष्ट्रीय औसत से
कम साक्षरता
कम रोज़गार
अधिक गरीबी वाले
इस विधान सभा के लिए
बड़े बड़े लोग बना रहे हैं
रणनीति

साहब !
नहीं है यह
मेरा विधानसभा क्षेत्र ही
आपका भी हो सकता है
देखिये तो खोल खिड़की. .

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

जनता दरबार और खाली कुर्सियां



प्रदेश के मुख्यमंत्री का
विसर्जित जनता दरबार,
अब, खाली ये कुर्सियां
रात को शांत पड़ीं
जैसे थक कर सोया हो
एक्के का घोडा,
स्टेशन का कुली
या दिहाड़ी मजदूर,
सो रही हैं
ये खाली कुर्सियां
जनता दरबार में।

समेट कर रख दी गई हैं
कुर्सियाँ, एक ओर,
कभी-कभी
एक के ऊपर एक तक
क्योंकि
बुहारा जायेगा परिसर,
बहुत सी गुहारें
और किए गए वायदों का कचरा।

इन्हीं कुर्सियों में से
कुछ एक पर
दिन भर बैठी थी
बेकारीबेगारी,
विनती कर रही थी -
नहीं मिली है वर्षों से
कीमत वाजिब -
पसीने  की,
दिलवा दी जाय।.

इस बार भी सुनी गई
माननीय द्वारा
गुहार
पहले की तरह,
खाली कुर्सियाँ गवाह हैं।

एक खाली कुर्सी पर
बैठी थी कुँवारी अस्मिता
जिससे खेला गया कई बार
वालीबाल की तरह
कभी खेतों में,
फैक्ट्रियों में,
थानों में अक्सर,
कभी मंत्री जी के घर
पीछे वाले कमरे में।

उसकी भी बात
सुन ली मंत्री ने,
कैमरे को देखकर
प्रकट की संवेदना, और
कंधे पर रख हाथ
आश्वश्त किया,
पहले की तरह, बस,
रोई थी कुर्सी पहले पहल,
पर, अभ्यस्त हो गई है
उस रुदन से,
भावना में नहीं बहती, अब।

एक कुर्सी
पहली बार आई है
दरबार में,
दिन भर बैठी रही
नीति उस पर
ठूँठ की तरह
बताती रही अड़चनें,
अनुपालन की कठिनाइयाँ,
नीति की व्यथा-कथा !
उद्वेलित यह कुर्सी नई
सोई नहीं रात भर,
कस गईं मुट्ठियाँ
उठ रहे मन में
क्रांति के ज्वार।

पुरानी कुर्सियाँ
हँस रही हैं इस नई कुर्सी पर।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

स्टॉक एक्सचेंज बताते है देश का मिजाज

(काफी दिनों से कुछ नया लिख नहीं सका हूं. इण्डिया गेट से सर्किल में एक कारवाले ने मेरी बाइक को टक्कर मार कर बिना रुके चला गया. मैं उन्हें धन्यवाद भी ना कर सका क्योंकि टक्कर जबरदस्त थी किन्तु मुझे उस हिसाब से कम चोट लगी. अब ठीक हो रहा हूं. इस बीच चढ़ते-उतरते स्टाक एक्सचेंज के बीच अपनी एक पुरानी कविता की याद आ गई. जिस तरह यूरोज़ोन  में समस्या से प्रभावित हुआ है अपना स्कोक एक्सचेंज ,लग रहा है आज भी  यह कविता प्रासंगिक है. )

स्टॉक एक्सचेंज बताते है देश का मिजाज

अब
जरुरत तय नही करतेमूल्य जिंसों का
स्टॉक एक्सचेंज के हाथ में
है रिमोट जिंदगी का 


मानसून  प्रभवित नही करते
अर्थ व्यवस्था
किसानों व कामगारों की थाली से
नही मापी जाती है भूख 


चढते स्टॉक एक्सचेंज
लुढ़कते स्टॉक एक्सचेंज
बताते हैं देश का मिजाज

बाढ़ में डूबे खेत
सूखे खलिहान
दंगों
भूखमरी
कुपोषित माँ और उनके बच्चे
बेरोजगार युवा कन्धों को
इन में शामिल नही किया जाता 


एस एम एस से तय होता है
बाज़ार का रूख
और अखबार कहते हैं
जींस में तेजी है
मूल्य स्थिर हैं
नही सो रहा है
कोई भूखा 



दुनिया के अलग अलग 
समय ज़ोन में होती हलचल से 
हो जाती है हमारी
निर्भरता की परीक्षा 

असफल हो जाते हैं हम
हिल जाती हैं नींव अपनी
स्थायित्व के दावे
और उजागर हो जाता है
उधार की रेत पर खड़ी
इमारत का सच


गिरवी लगता है
स्टोक एक्सचेंज,
इसकी संवेदनाएं
समय के इस ज़ोन में

बुधवार, 14 सितंबर 2011

हिंदी : कुछ क्षणिकाएं


रौशनी जहाँ 
पहुंची नहीं 
वहां की आवाज़ हो 
भाषा से
कुछ अधिक हो 
तुम हिंदी


खेत खलिहान में
जो गुनगुनाती हैं फसलें
पोखरों में जो नहाती हैं भैसें
ऐसे जीवन का 
तुम संगीत हो 
भाषा से
कुछ अधिक हो 
तुम हिंदी


बहरी जब
हो जाती है सत्ता
उसे जगाने का तुम
मूल मंत्र हो
भाषा से 
कुछ अधिक हो
तुम हिंदी. 

बिना कहे भी 
कुछ समझाना हो
सुनना और सुनना हो 
सम्प्रेषण का 
सशक्त माध्यम हो 
भाषा से 
कुछ अधिक हो 
तुम हिंदी. 

अधरों से 
बहती हो सरल 
कानों में 
घुलती हो सरस 
मन से बांधे मन 
सम्मोहन का सुन्दर पाश हो 
भाषा से 
कुछ अधिक हो  
तुम हिंदी.  

सोमवार, 5 सितंबर 2011

शिक्षक : कुछ क्षणिकाएं

१.
आपने
पढाया तो था
'प' से प्यार
न जाने
कब कैसे
बन गया
'प' से पैसा


मोटे चश्मे में
आपकी छवि
आदर्श बन न सकी
बदल लीजिये 
अब तो इसे


हे मेरे प्रथम शिक्षक !
आपका योगदान
वैसे ही अप्रत्यक्ष रहेगा
जैसे गगनचुम्बी ईमारत के नीचे दबी
नींव की ईंट

४.
एक दिन
याद करने की
परंपरा चल पडी है
आपको ही  नहीं
माता पिता
भाई बहन
मित्र सबको,
धन्यवाद कीजिये कि
भुलाये नहीं गए हैं आप

शनिवार, 3 सितंबर 2011

एक अस्पष्ट कोलाज़ मैं


मैं
चला  जा रहा हूं
लक्ष्य
निर्धारित नहीं
दिशा नहीं ज्ञात
माध्यम भी अज्ञात
फिर भी
चला जा रहा हूं

बहुत शोर हो रहा है
किसका है शोर
क्यों है शोर
शोर का क्या है उद्देश्य
किसी को कुछ नहीं पता
सब निरुद्देश्य
इस शोर को 
अपने कंधे पर लादे
चला जा रहा हूँ मैं

बहुत रौशनी है
इस रास्ते पर
इतनी चकाचौंध
स्पष्ट कुछ दिखाई नहीं दे रहा
सबके चेहरे एक से हैं
कोई फर्क नहीं दिख रहा
एक दूसरे में
बीच बीच में
प्रकाश का एक विस्फोट सा होता है
और अट्टाहस करते हैं ये चेहरे
और दौड़ पड़ते हैं इसी रास्ते पर
एक दिशा में

थोडा आगे बढ़ा हूँ मैं
तो देख रहा हूं
एक ढलान है
बहुत तेज़
और उतर गया हूँ मैं
बिना गुरुत्वाकर्षण के
बिना घर्षण के
मैं गिरा  जा रहा हूं
जितना नीचे जा रहा हूं
शोर उतना ही अधिक हो रहा है
रौशनी उतनी ही तीक्ष्ण  हो रही है
और उतनी ही तेज़ी से ख़त्म हो रही है
मेरे सोचने समझने की शक्ति

मैं गिर रहा हूँ
यह रास्ता अंतहीन है
दिशाहीन है
इसके आकर्षण के आगे
कोई गुरुत्व नहीं करता है काम
मैं गिर रहा हूं
हो गया है फिर एक
रौशनी का विस्फोट
मैं अब इसी शोर का 
हो गया हूं हिस्सा 

एक अस्पष्ट कोलाज़
हो गया हूँ मैं

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

भादो मास



गीले भीत के 
ढहने के डर से
नींद नहीं आती है
भादो मास 
हे देश ! 
क्यों नहीं है तुम्हें पता ?

भादो मास के अन्हरिया में 
टूटी हुई चट्टी* पहनकर 
गया था वह दिशा मैदान 
काट लिया साँप ने
कोसों दूर 
न  डाक्टर न अस्पताल
मर गया झाड फूंक के दौरान 
हे देश !
क्यों नहीं बनी यह खबर ?

भादो मास 
जो चढ़ी थी नदी
बँटना शुरू हो गया था
अनाज, पन्नी 
सुना था रेडियो पर
पंहुचा नहीं मेरे गाँव 
हे देश !
क्यों नहीं बना यह मुद्दा ?

६५वा भादो है यह 
देश का 
आज़ादी के बाद 
इस बीच 
क्यों नहीं आया
कोई अगहन
मेरे लिए
हे देश !
क्या है उत्तर सर्वोच्च संसद के पास ?

*चप्पल

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

रामलीला मैदान से लौटते हुए




हर साल
मेघनाद, कुम्भकरण
और रावण को
जलाने की परंपरा है
इस मैदान में
सरकार के नेतृत्व के हाथों
जब वास्तव में
होना है
रावण का अवसान
वही सरकार
आज फासले पर है
इस मैदान से


आज
कन्धा है
थोडा ऊँचा
मन पर बोझ है
थोडा कम
विश्वास है
थोडा दृढ
एक परिवर्तन जो
होने को है
इस मैदान से


सुना था
अहिंसा में है
अतुलनीय शक्ति
सुना था
हो सकती है
क्रांति
विश्वास फिर भी
था नहीं
किन्तु 

आज मुट्ठियाँ 
भिंच रही हैं

बुधवार, 17 अगस्त 2011

नागार्जुन तुम कवि नहीं थे

तुम कवि नहीं थे
नागार्जुन
तुम्हे कोई वाद
नहीं था पसंद
तुमने नहीं जुटाई
अपनी पीढ़ियों के लिए
सुविधाएँ
तुम जुटा गए स्वरलहरियां
जिन्हें सुन आज भी
भुजाएं तन जाती हैं
कहो क्या कविता है
यह उद्देश्य

कवि की तरह
तुम्हे कभी प्रेम भी नहीं हुआ
कोई प्रेयसी नहीं थी तुम्हारी
जो लिखे अपनी आत्मकथा में
तुम्हारा नाम और
पत्रिकाओं के संपादक
उन पर करें चर्चा, टीका- टिप्पणी
हाँ जब युवा थे तुम
तुम्हे प्रेम हुआ भी था
तो कलकत्ता की  ट्राम और
मिलिटरी से रिटायर हुए
बूढ़े घोड़े से
कहो तो कैसे हो
इस विषय पर कोई चर्चा
लिखी जाए सम्पादकीय टिप्पणी
नागार्जुन
तुम कवि नहीं थे

तुम्हारी कविताओं में
अभाव  है नितांत
क्योंकि ह्रदय नहीं टूटते हैं
तुम्हारी कविताओं में
बिस्तरों में सिलवट नहीं पड़ते
और साँसें एक नहीं होती
तुम्हारी  कविताओं में
एक बस ड्राइवर सामने रख लेता है
गुलाबी चूड़ियां अपनी नन्ही बिटिया के लिए
कुतिया सोती है कई दिनों से बुझे चूल्हे के पीछे
रानी की पालकी ढोने के क्रम में
विद्रोह का विगुल बजा देती हैं
तुम्हारी कवितायेँ
फिर कहो कैसे कहें तुम्हे
एक कवि

नागर्जुन
तुम कवि नहीं हो सकते
तुम क्रांतिबीज थे
जो पनपेगा  एक न एक दिन
अवश्य ही  !

रविवार, 14 अगस्त 2011

लाल किले की प्राचीर से



१.
यह प्राचीर
बहुत ऊँची है
यहाँ से नीचे
बैठती है जनता जहाँ
दिखाई नहीं देता
कुछ साफ़ साफ़

२.
यह प्राचीर
बहुत दूर है
यहाँ से चली
घोषणाओं को
पहुचने में जनता तक
हो जाता है
पारेषण ह्रास

३.
यह प्राचीर
टिकी  है
जनता की पीठ पर
इसलिए इसका  भी है
हाल वही
जो होता है
नीव की ईंट का

४.
इस प्राचीर से
किये जाते हैं
तरह तरह के वादे
दिए जाते हैं
दुनिया भर को सन्देश
भरी जाती हैं हुंकार
बलिदान के लिए
रहते हैं तैयार
बुलेट प्रूफ पारदर्शी शेल के बीच से


इस प्राचीर से
लिया जा रहा है
हर साल नाम
हमारे गाँव का
हमारे खेतों का
हमारे बेरोजगार भाई का
कम होती बहनों का
बिजली का
दंगों का
स्कूलों का
कालेजों का 
शिक्षको की कमी का

कुल मिला कर
मुद्दे बदले नहीं हैं
इस प्राचीर के
इन ६४ सालों में 

बुधवार, 10 अगस्त 2011

नहीं आती है मां को मोबाइल चलानी

माँ को जब
नहीं आता है
मोबाईल पर सन्देश भेजना
बड़ी खीज आती होगी आपको
आप तब अपना सिर
पीट लेते होंगे
जब उसे मोबाइल खोल कर
सन्देश पढना भी नहीं आता होगा

आपने जब दिया होगा
नया मोबाइल फ़ोन

एक और जरुरत समझकर
सिखाया होगा जतन से
फ़ोन करना
सन्देश पढना/भेजना
फोटो खीचना
रेडियो बजाना 

वीडियो काल करना
और आप निराश हो गए होंगे
जब वह बिना किसी रूचि के
रख दी होगी मोबाइल
एक ओर

आप लौट आये होंगे
गाँव से उल्टे पाँव
उसी हताशा में, निराशा में
समझा दिया होगा
आस पड़ोस को
माँ के बारे में सबकुछ
उसकी बीमारी, उसका डाक्टर

चश्मे का नंबर 
अलग से रख दिया होगा एक और चश्मा भी 
छह महीने की दवाई की पोटली के साथ
दे दिया होगा
अपना नंबर भी
प्रतीक्षित आकस्मिक स्थिति के लिए

लौटते हुए आपने कई बार
'सॉरी' का सन्देश भी भेजा होगा
लेकिन नहीं आया  होगा जवाब
बहुत रोये होंगे आप
उसकी  कांपती हाथो से लिखी
चिट्ठी को याद करके 

लगता होगा कि बदल गई है 
माँ भी

आश्चर्य होता होगा न कि
जो लिख सकती हैं इस उम्र में भी
करीब सात फांट साइज़ के महीन अक्षरों में चिट्ठी
उसे कैसे नहीं चला सकती है
मोबाइल

आप सोच रहे होंगे
इनबाक्स में पड़े होंगे 

आपके सन्देश
बिना माँ के बच्चों  जैसे
और माँ के बारे में
सोचते सोचते आप भूल गए होंगे कि
चलना उसी ने सिखाया था
पकड़ कर नन्ही उंगलियाँ
पहली बार 
वही  थी भागी 
साइकिल के पीछे 

दो और दो चार होते हैं
उँगलियों को दिखा कर
उसी ने सिखाया था 

जो अब भी याद है आपको

शायद
जबसे आपने सीख लिया कि
दो और दो केवल चार नहीं होते
माँ भूल गई
सब जोड़, घटा, गुणा, भाग
और कर दी घोषणा
नहीं आती है मां को 

मोबाइल चलानी .