(अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार के बाद किसी की ग़ज़ल में यदि क्रांति थी तो वे थे अदम गोंडवी. वे नहीं रहे. उन्हें कई बार प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला.एक बार धनबाद भी आये थे एक कवि सम्मलेन में.रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी को समर्पित एक कविता. शायद कभी प्रत्यक्ष मिलता तो यही कहता जो कविता कह रही है.)
पता है
तुम नहीं रहे
और कोई खबर नहीं बनी
किसी भी सर्च इंजन में
तुम्हारा नाम , परिचय
तुम्हारी कवितायेँ, ग़ज़ल नहीं आती हैं
तुम किसी लेट्रेरी फेस्टिवल के अतिथि भी नहीं बने
कहो फिर क्यों बनती कोई खबर
तुम मंच से कविता कहते थे
तो सच लगता था
रोये खड़े हो जाते थे
मुट्ठियाँ भिंच जाती थी
लेकिन क्या उस से बदल जाती है
लोकतंत्र की प्रणाली
तुमने कहा था
फाइलों के जाल में उलझी रौशनी
सालो साल नहीं आएगी गाँव में
चीख चीख कर गाते रहे तुम
ग़ज़ल लिखने से बेहतर होता
मांग लिया होता
कोई लोकपाल
कह दिया होता सरकार से
बनाने को सिटिज़न चार्टर
तुम भी रहते खबर में
रोज़ मापा जाता
तुम्हारा भी रक्तचाप
एम्बुलेस खड़ी होती
तुम्हारे मंच के पीछे
लेकिन तुम तो
पीछे ही पड़ गए थे
विधायक के
जो भुने हुए काजू और व्हिस्की के जरिये
चाहता था रामराज लाना
अदम साहब
तुम तो चले गए
वे विधायक अब भी हैं
व्हिस्की और भुने हुए काजू के साथ
तरह तरह के गोश्त परोसे जाने लगे हैं
अब भी फाइलों में उलझी है रौशनी
ठन्डे चूल्हे पर अब भी चढ़ती है
खाली पतीली
दीगर बात है कि
लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रो के परिसीमनो के बाद
बढ़ गई है इनकी संख्या
कुछ मंत्री बन गए हैं
और जो मंत्री नहीं बन सके
बना दिए गए हैं आयोगों और समितियों के सदस्य
उधर ठन्डे चूल्हों की संख्या भी बढ़ गई है
यदि आप लिखे होते
अपने गाँव के पकौड़ो और जलेवियों के बारे में
या फिर अपने जीवन में आने वाली महिलाओं के बारे में
थोडा सच थोडा झूठ
आये होते लोग आपकी भी शोक सभा में
छपी होती आपकी तस्वीर भी
किसी अंग्रेजी अखबार में
लेकिन आपकी गजले तो उतारू थी हाथापाई पर
इस व्यवस्था के साथ
एक बात कहूँगा फिर भी
सिंह साहब
आपके जाने के बाद भी
गरजेंगी आपकी ग़ज़लें और
डरेगी यह व्यवस्था !