सोमवार, 21 जून 2010

बंटवारा

चलो भाई
बड़े हो गए हैं
हम
अब कर लेते हैं
बटवारा

माँ के दूध का
हिसाब लगा लेते हैं
बड़े ने कितना पिया
मंझले ने कितना पिया
और छुटकी को
कितना पिलाया माँ ने दूध
जरुरी है इसका हिसाब
अगर कोई
कमी बेसी हो तो कह लेना
लगा लेना कीमत

पिता के
खेत खलिहान तो हैं नहीं
सो बांटने के लिए बस है
उनका प्यार
परवरिश
दिए हुए संस्कार
साथ ही परवरिश में किया गया फर्क
ठीक से हिसाब लगा लेना
कुछ छूट ना जाए
रात रात जो जाग कर
अपने कंधे पर झुला कर जो रखा था
उसकी कीमत लगा लेना
उन्हें भी बाँट लेंगे

याद है तुम्हे
ये दालान
जिस पर चौकड़ी जमा
हम सब सूना करते थे
क्रिकेट का आँखों देखा हाल
बी बी सी के समाचार
बतकही और
बहसबाजी
बाँट लो उन पलों को
हंसी के ठहकाओं को
उनसे उपजी ख़ुशी को

ये दो कमरे हैं
किसने कितना पसीना बहाया
किसने कितने ईटें ढोई
लगा लो इसका भी हिसाब
बहुत आसान हो जायेगी
जिंदगी

अंतिम क्षणों में
बहुत रोये थे पिताजी
सब बेटो और बहुओं के लिए
कुछ आंसूं के बूँद
मोती बन गिरे थे
मेरे गमछे में
बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें

13 टिप्‍पणियां:

  1. माँ के दूध का
    हिसाब लगा लेते हैं
    बड़े ने कितना पिया
    मंझले ने कितना पिया
    और छुटकी को
    कितना पिलाया माँ ने दूध
    जरुरी है इसका हिसाब
    अगर कोई
    कमी बेसी हो तो कह लेना
    लगा लेना कीमत
    .........
    बहुत मार्मिक और दिल को छूने वाली कविता ।

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  2. "अंतिम क्षणों में
    बहुत रोये थे पिताजी
    सब बेटो और बहुओं के लिए
    कुछ आंसूं के बूँद
    मोती बन गिरे थे
    मेरे गमछे में
    बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें"

    बेहद संवेदनशील और मार्मिक रचना - बहुत बहुत सुंदर

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  3. कुछ आंसूं के बूँद
    मोती बन गिरे थे
    मेरे गमछे में
    बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें


    बहुत संवेदनशील रचना.....आपकी हर रचना मुझे बहुत पसंद आती है...

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  4. बेहद मार्मिक और सम्वेदनशील रचना………………गज़ब की दूरदृष्टि।

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  5. बहुत मार्मिक रचना रची है आपने...हम बहुत सी चीजों को किसी के साथ नहीं बाँट सकते...विलक्षण रचना...
    नीरज

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  6. क्या कहूँ दिल भर आया. क्या सचमुच आज हम इतने स्वार्थी हो गए हैं???? कितनी घृणा सी होती है ये सब कुछ सोच कर है न !!!!.क्या हम ये भूल गए हैं की "जो बोओगे सो काटोगे" या हम सब कुछ सहने को तैयार हैं. मैं भी नहीं जानती.

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  7. अंतिम क्षणों में
    बहुत रोये थे पिताजी
    सब बेटो और बहुओं के लिए
    कुछ आंसूं के बूँद
    मोती बन गिरे थे
    मेरे गमछे में
    बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें
    one can understand this who had gone through the same... these days i am in a similar situation so can relate to this poem word by word... its painful emotion still can't do much its life...

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  8. यह कविता मानवीय त्रासदी के सफल चित्रण की नई परिभाषा गढ़ती है। इस कविता में बिल्कुल भिन्न स्वाद है, यह खलल पैदा करता है, विचलन पैदा करता है। इस कविता में बहुत बेहतर, बहुत गहरे स्तर पर एक बहुत ही छुपी हुई करुणा और गम्भीरता है।

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  9. पता नहीं कल इनका भी बटवारा हो जाए ... बेहद मार्मिक रचना

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  10. क्या चित्र उकेरा है आपने....उफ़ !!!

    मन को छूकर झकझोर गयी यह रचना...मन भर आया...

    नमन आपके कलम को...

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