प्रिये !
लिखते हुए
साल की अंतिम कविता
याद आए मुझे लिखते हुए
साल की अंतिम कविता
कुछ भयावह स्वप्न
जिन्हें शब्द देना नहीं है वश में
लग रहा है
मानो किसी प्रार्थनाघर में हूँ
मेरे चारों ओर हो रहे हैं धमाके
मेरे चारों ओर हो रहे हैं धमाके
चीख और उसकी ख़ामोशी की सिसकियों के बीच
लहुलुहान देख रहा हूं
कुछ अजीब से चेहरे जिनकी हंसी
लिपटी है तरह-तरह के झंडों में
पृथ्वी जोरों से घूम रही है
अपने अक्ष पर,
गति के ताप से
पिघलती हुई धरती
बहाए जा रही है गति के ताप से
पिघलती हुई धरती
शीशे सा चमकता
अपना लावा कानों में
सोचता हूं
क्या बदलेगा इस विश्व में
मेरे कुछ असहाय कमजोर शब्दों से
जब गिरवी रखे जा रहे हैं ताकतवर शब्द
सोचता हूं
क्या बदलेगा इस विश्व में
मेरे कुछ असहाय कमजोर शब्दों से
जब गिरवी रखे जा रहे हैं ताकतवर शब्द
महज हस्ताक्षरों के द्वारा
जनहित के नाम पर
जनहित के नाम पर
जिनके नाम पर
हो रही हैं घोषणाएं
वे नजर आ रहे हैं
हो रही हैं घोषणाएं
वे नजर आ रहे हैं
सलाखों के पीछे.
उन चेहरों में एक चेहरा कुछ जाना पहचाना है
शायद तुम हो
शायद मैं स्वयं हूं
प्रार्थना में उठ गए हैं हाथ
छोड़ कर कलम
शायद मैं स्वयं हूं
शायद.....।
प्रार्थना में उठ गए हैं हाथ
छोड़ कर कलम
सोचता हूं हाथ कब
परिवर्तित होंगे मुट्ठियों में
लिखते हुए साल की अंतिम कविता .