अरुण चन्द्र रॉय की कविता - फोनबुक से वार्तालाप
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महामारी से भयभीत होकर
इन दिनों मैं अपने फोन के कॉन्टैक्ट लिस्ट को
खंगालता हूं बार बार
करता हूं इससे वार्तालाप
सोचता हूं यदि गिर गया ऑक्सीजन लेवल मेरा तो
किसे फोन करेगी मेरी पत्नी या बच्चे
कौन दौड़ा आएगा सबसे पहले
उठा ले जाएगा मुझे किसी अस्पताल के लिए
कौन बच्चों को समझाएगा मेरी पत्नी या बच्चों को
ढांढस देगा उन्हें
कौन फोन नहीं उठाएगा जैसे
मैं नहीं उठाता हूं फोन कई बार
देकर दफ्तर में व्यस्त रहने का हवाला
कौन डर जायेगा कि कहीं मांग न लूं उधार
इस महामारी में उधारी देना कितना जोखिम भरा है न
जब देश की पूरी अर्थव्यवस्था उधारी में जा रही हो धंसी।
मैं अपने फोनबुक को ऊपर से नीचे तक
करता हूं बार बार स्क्रॉल
एक एक नंबर पर रुकता हूं सोचता हूं
फिर याद आते हैं मुझे उनके साथ किया हुआ
अच्छा बुरा व्यवहार
अच्छे व्यवहार पर मुस्कुराता हूं
और बुरे व्यवहार पर जतात हूं पश्चाताप
खुद से करता हूं वादा कि यदि गुजर गया
महामारी का यह बुरा दौर तो
बदल लूंगा अपना व्यवहार
हर फोन नंबर पर बदलता है
मेरे चेहरे का रंग और हावभाव ।
यदि कोई अनहोनी घटित हो जाती है तो
क्या चार कंधे मिल जाएगा मुझे
ऐसे चार नाम ढूंढते ढूंढते मुझे याद आते है अपने रिश्तेदार
जिनके शादी व्याह, मरनी हरनी में भी
शामिल नहीं हो पाया था मैं
भेज दिया था नेग कूरियर से
वे लोग भी याद आ रहे हैं जिन्हें टरका देता था मैं
मदद की मांग पर
जबकि सोच रहा हूं कि यदि ये लोग पहुंच जाएं
सुनकर मेरे नहीं रहने की खबर तो
अन्त्येष्टि से क्रियाकर्म तक नहीं होगी
मेरी पत्नी या बच्चों को कोई दिक्कत।
मन ही मन मैं सूची बनाने लगता हूं कि
किस से मांगनी है माफी किसी अनजानी गलती के लिए
किसको कहना है धन्यवाद किसी छोटे बड़े उपकार के लिए
किसको कह के जाना है कि बच्चों को रखे ध्यान थोड़ा
और अंत में मैं अपनी पत्नी को भेजता हूं एक मैसेज -
" यह दुनिया तब भी थी, जब नहीं थे हम
यह दुनिया तब भी रहेगी, जब नहीं रहेंगे हम
हमारे होने या न होने से नहीं रुकता है
पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना
सूर्य का उदय और अस्त
बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का चक्र
फूलों का मुरझाना और फिर से खिलना
वृक्षों पर पतझड़ और नव पल्लव का आना।"
और गहरी सांस लेकर में बंद कर देता हूं
अपने फोनबुक से वार्तालाप।